उसकी भोर कभी ना खिली…
उस बावरी का दिल कभी जलता है कभी मुस्कुराता है,
ज़िंदगी धूप छाँव का मिश्रण है
उज्जवल दिन पर कब तमस की परत पोत दे आँखों की नमी दर्द की मिट्टी को भिगोकर,
ज़िंदगी की दीवारों पर वक्त अपना हिसाब लिखता रहता है.!
बादल, बरखा, सूरज, चाँद, नक्षत्र,
पृथ्वी की क्षितिज के मोहताज से अडोल सदियों से हंसते, खेलते, चमकते रहते है
वो देखती रहती है कुतूहल भरे पुतलियों में,
निशिगंधा के फूल की बावरी वो आँखें मूँदे ज़िंदगी के ट्रेन में सफ़र करते हर स्टेशन पर ढूँढती है,
कभी भोर की रश्मियाँ, तो कभी रात की निरवता, कभी हिम कंदरा की बर्फ़िली बयार, तो कभी सहरा की कुनी धूप को तरसते काटना है उसे एक सफ़र.!
तेज रफ़्तार से बहते वक्त से स्मृतियों के गौहर समेटती तो है
पर
जब-जब मुट्ठी खोलती है हथेलियाँ बिन लकीरों की सपाट मैदान सी पाती है.!
पर्दा गिरते ही ज़िंदगी के रंगमंच का खाली आई थी खाली झोली लिए ही चली जाती है.!
हर सपनो को हसरतों की संदूक में ताला लगाकर आख़री आँच में अपने संग जला ले जाती है.!
“बदनसीबी के अंधेरों में तमन्नाएँ झुलसती रही और उसकी भोर कभी ना खिली”
©भावना जे. ठाकर