मैं मैं हूँ …
बंधन जितने भी हैं
सब दिल से हैं
एक डोर है प्यार की
समर्पण की अपने पन की
और मैं खो जाती हूँ इन्हें
और खूबसूरत करने और सुन्दर प्यारे रंग भरने क्योंकि
मुझे पसंद है पर ये बेडियाँ नहीं बंधन है प्यार का
मैं इसमें खुश हूँ क्योंकि
मैं मैं हूँ।
जब पति को बुखार हो
वो एक माँ तलाशता है मुझमें
बच्चे जब भी चोट खाते हैं
एक रब की तरह मुझे खोजते हैं
जैसे मेरे मिलते
ही सब ठीक हो जाएगा।
घर का हर सदस्य मेरी
अहमियत जानता है
मुझे ये बोझ नहीं लगता
क्योंकि मैं सम्पूर्ण हूँ
मुझे पसंद है ये नारीत्व
आखिरकार मैं मैं हूँ।
मैं किसी भी कीमत पर
अपना महत्व नहीं खोना
चाहती किसी भी स्वतंत्रता
के बहकावे में आकर अपना
आकर्षण नहीं खोना चाहती
मैं औरत हूँ औरों में सदा रत
हूँ उस ईश्वर का नायाब तोहफा खोना नहीं चाहती।
मैं जो हूँ वही रहना चाहती हूँ
क्योंकि मैं मैं हूँ।
©श्रद्धान्जलि शुक्ला अंजन, कटनी, मध्य प्रदेश