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बिहार1984 के लोकसभा चुनाव के बाद चार दशक में कांग्रेस का ग्राफ नीचे आता गया

पटना
 बिहार में वर्ष 1984 में हुये लोकसभा चुनाव में सर्वाधिक 48 सीट जीतने वाली कांग्रेस पिछले चार दशक में केवल 24 सीट जीत पाने में सफल हो पायी है, जो उसके वर्ष 1984 में हुये प्रदर्शन का आधा है।

देश के सबसे पुराने और प्रमुख राजनीतिक दलों में से एक कांग्रेस का कभी बिहार की सत्ता में वर्चस्व था। बिहार में एक समय कांग्रेस का सिक्का चलता था लेकिन वर्ष 1984 में हुये लोकसभा चुनाव के बाद चार दशक में कांग्रेस का ग्राफ नीचे आता गया। वर्ष 1984 में कांग्रेस का प्रदर्शन बिहार में सबसे बेहतर साबित हुआ। इस वर्ष कांग्रेस ने 54 सीट पर चुनाव लड़ा। श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति की लहर में बिहार में कांग्रेस के 48 प्रत्याशी निर्वाचित हुये। बिहार में वर्ष 1984 में हुये लोकसभा चुनाव में सर्वाधिक 48 सीट जीतने वाली कांग्रेस ने पिछले चार दशक में महज 24 सीटे अपने नाम की है, जो वर्ष 1984 में उसके प्रदर्शन का आधा है। वर्ष 1984 में हुयी सफलता को कांग्रेस बाद में बरकरार नहीं रख पाई और लगातार धरातल की ओर गिरती गयी।

बिहार में भी कांग्रेस उत्तर प्रदेश की तरह अगड़ी जातियों की पैरोकार थी। (भाजपा) की स्थापना वर्ष 1980 में हुयी। बिहार में वर्ष 1980 के बिहार विधानसभा चुनाव में अपने सियासी पांव जमाने शुरू किये। अगड़ी जातियों को विकल्प के तौर पर भाजपा का साथ मिल गया।1990 में भारतीय राजनीति में दो बड़े परिवर्तन हुये,जिसने कांग्रेस को हाशिए पर लाकर खड़ा कर दिया। केंद्र में जनता दल की सरकार के तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मोरारजी देसाई द्वारा गठित पिछड़ा वर्ग आयोग (मंडल आयोग) की रिपोर्ट को लागू करने की घोषणा कर दी।इस आयोग ने अन्य पिछड़े वर्गों को नौकरियों में 27 फीसदी आरक्षण की सिफारिश की थी। कांग्रेस की सरकार ने इस सिफारिश को लंबे समय तक लटकाए रखा था।

मंडल आयोग की सिफारिशों के लागू होने के बाद 1990 को भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने राम मंदिर के लिए सोमनाथ से उत्तर प्रदेश के अयोध्या तक रथयात्रा की शुरुआत की. तब बिहार में जनता दल के लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री थे, जिन्होंने आडवाणी को 23 अक्टूबर 1990 को गिरफ्तार करवा दिया।मंडल और कमंडल की इस राजनीति में कांग्रेस हाशिए पर चली गयी।बिहार में कांग्रेस का जनाधार 1989 के भागलपुर कौमी दंगे के बाद लगातार गिरता ही गया।

बिहार में 1990 का दशक पिछड़ा वर्ग के उभार के लिये जाना जाता है। लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के आगमन के बाद कांग्रेस का बिहार में वजूद कम होता गया। कांग्रेस न तो वह सवर्णों का खुलकर साथ दे पाई और न ही पिछड़े और दलित समुदाय को साध पायी।मंडल-कमंडल के दौर में कांग्रेस पिछड़ती चली गयी। कांग्रेस पिछड़ों-अगड़ों की जातीय गोलबंदी में खुद का एडजस्ट नहीं कर पायी। कभी दलित कांग्रेस का कोर वोटबैंक हुआ करता था, उसमें रामविलास पासवान जैसे नेताओं ने सेंधमारी कर दी। वर्ष 1984 में सर्वाधिक 48 सीट जीतने वाली कांग्रेस क्षेत्रीय पार्टियों के दबाव में अपने अस्तित्व को लेकर जद्दोजहद कर रही है। कांग्रेस बदलते समय के साथ लोगों की आकांक्षाओं को पहचानने में कांग्रेस चूक गई और लोकसभा 2019 चुनाव में वह महज एक सीट पर सिमटकर रह गयी।

वर्ष 1989 के आम चुनाव में कांग्रेस के चार प्रत्याशी किशनगंज, नालंदा, सिंहभूम और लोहरदगा में निर्वाचित हुये।वर्ष 1991 के आम चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन बेहद निराशजनक रहा।कांग्रेस ने मात्र एक सीट बेगूसराय से जीत हासिल की। कांग्रेस की दिग्गज कृष्णा साही ने बेगूसराय सीट पर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) उम्मीदवार ललिता सिंह को पराजित किया।वर्ष 1996 के आम चुनाव में कांग्रेस ने दो सीट कटिहार और राजमहल(सु) से जीत हासिल की।वर्ष 1998 में कांग्रेस पांच सीट मधुबनी,कटिहार, बेगूसराय,सिंहभूम (सु) और लोहरदगा(सु) पर काबिज हुयी।वर्ष 1999 में कांग्रेस ने चार सीट राजमहल (सु),बेगूसराय, औरंगाबाद और कोडरमा पर अपना कब्जा जमाया। वर्ष 2004 में कांग्रेस के प्रत्याशी तीन सीट मधुबनी, औरंगाबाद और सासाराम (सु) पर विजयी हुये। वर्ष 2009 में हुये लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने किशनगंज और सासाराम (सु) सीट अपने नाम की। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने 02 सीट सुपौल और किशनगंज पर सफलता पायी।वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को केवल एक सीट किशनगंज सीट से संतोष करना पड़ा।

किशनगंज से पूर्व मंत्री मोहम्मद हुसैन आजाद के पुत्र डॉ. मोहम्मद जावेद चुनाव विजय रहे।इस तरह बिहार में कांग्रेस वर्ष 1984 के बाद हुये चुनाव में केवल 24 सीट जीत पाने में सफल रही है।

देश की आजादी के बाद दो दशक तक हर लोकसभा और बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस दो-तिहाई के आसपास सीटें प्राप्त करती रही। तकरीबन साढ़े तीन दशक से बिहार की सियासत में कांग्रेस मुख्यधारा की भूमिका से बाहर रही है। ढाई दशक पहले कांग्रेस ने गठबंधन की सियासत में कदम रखा लेकिन इसके बाद से कांग्रेस का ग्राफ और गिरता ही गया। वहीं गठबंधन ने जहां भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और जनता दल यूनाईटेड (जदयू) को मजबूत किया वहीं कांग्रेस का अपना आधार लगातार कमजोर होता गया। कभी बिहार की राजनीति में एकछत्र शासन करने वाली कांग्रेस पिछले चार दशक से अपने वजूद के लिए तरस रही है।

 

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