लेखक की कलम से

चाय प्रेम …

 

शादी से पहले, स्कूल था हमारा, उस वक़्त चाय चार बार स्कूल में, दो बार सुबह नाश्ते तक, शाम को और अक्सर रात को खाने के साथ पीने की आदत थी तो आठ नौ कप कप चाय हलक में उतारे बिना नींद नहीं आती थी, उस पर चाय हर किसी की बनाई हुई पसंद भी नहीं आती थी, स्कूल में या तो स्टाफ में से किसी को कहती या फिर खुद ही.. पानी कम, मीठा ठीक ठीक, पत्ती तेज़ और दूध ज्यादा, अब किसी को इतना समझाने का कष्ट करने से बेहतर खुद ही बना लेना श्रेयस्कर।

शादी ऐसे घर में जहाँ चाय, मय पीने के बराबर, सुबह की चाय का तो मतलब ही नहीं, नाश्ते के लिए मैंने हिचकते हुए बताया कि मैं चाय के बिना नाश्ता नहीं कर पाऊंगी तो मैं और मेरी ननद हम दोनों अपने लिए चाय बना लेते, मैं तो स्टील का पूरा बड़ा गिलास बना लेती कि सारा दिन चाय दिमाग पर चढ़ी न रहे, जैसे जैसे शाम को भी लेने लगी लेकिन सबकी नज़रें ऐसे देखती और कहती, “इससे बड़ा कोई पाप नहीं ” मैं बेशर्म होकर किसी की तरफ देखती ही नहीं और बात तो सुनती ही नहीं थी (सिर्फ चाय को लेकर दिया गया ज्ञान)….

फिल्मों में दिखाए रोमांटिक सीन कि पति सुबह पत्नी को चाय बनाकर, उठा रहे कि ‘प्रिये, उठो चाय बन गई ‘ …… सपना ही रहा।

अब केवल दो कप तक सिमट गया मेरा चाय प्रेम, उसमें भी सुनना पड़ता है मुझे की बहुत चाय पीती हो… बताओ जरा….

अन्याय नहीं तो और क्या है।

अब तो यही कहती हूँ सब मोह माया है…. खाना पीना कम हो जाए तो अच्छा… लेकिन, लेकिन

गोलगप्पों के प्रति मेरे प्रेम को कम नहीं किया जा सकता।

बहुत सी आखरी इच्छाओं में एक इच्छा यह भी कही है मैंने कि मेरे भोग पर गोलगप्पों का स्टाल जरुर लगवा देना ताकि मैं सबको खाता देख तृप्त हो जाऊं और फिर मुक्त।

 

©सीमा गुप्ता, पंचकूला, हरियाणा                                                                 

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