मां की पुकार …
धरती प्यासी अंबर प्यासा प्यासी सरिता सारी
इस धरती का कण कण प्यासा बिलख रहे मन मारी
मृत्यु शैया पर बुला रहे हैं कोई तो आ जाओ
ज्ञान बिंदु दो गले में डालो जीवन मेरा बचाओ ।
रामकृष्ण की इस धरती पर क्या सब हुए लबारे
कर्म हीन क्या सभी हो गए भारत मां के प्यारे
गुरु वशिष्ट शंकराचार्य व सरस्वती से ज्ञानी
चाणक्य सुमन तुलसी कबीर व सूर प्रसाद से ध्यानी।
युग की जिसने धारा मोड़ी ज्ञान की ज्योति जला कर
शीर्ष पीठ पर मुझे बिठाया अमृतवारि पिलाकर
गांधी सुभाष आजाद भगत सिंह फांसी गले लगाकर
लाज बचाई मेरे प्यारे गोरे दुष्ट भगा कर ।
उनके हो तुम वंशज होकर कहां आज तुम भटक गए
कर्तव्य हीनता बेईमानी स्वार्थ पूर्ति में अटक गए
मेरे ही आंचल में रहकर यदि मुझको तड़पाओगे
मेरी ममता को ठुकराकर मुझ को दूर भगाओगे ।
अभिशाप लगेगा मेरा तुमको कभी न तुम सुख पाओगे
कलंक बनोगे इस जग में तुम मेरा दूध लजाओगे
आज करो प्रण प्यारे मेरे ज्ञान की ज्योति जला कर
रक्षा करूंगा मैं मां तेरी अमृत बूंद पिलाकर ।
यदि तृप्त कर सके मां को अपने बेटा तुम्हे कहूंगी
कण-कण तेरा ऋणी बनेगा मैं भी धन्य बनूंगी।
©कविता के लेखक स्वर्गीय दाता दयाल त्रिपाठी
साभार- केएम त्रिपाठी, प्राचार्य, मुजफ्फरपुर, बिहार