लेखक की कलम से

पर्व के बहाने अम्मा के हाथों की महक और स्वाद की यादें…..

मकर संक्रांति पर विशेष

मकर संक्रांति आते ही बरबस मेरे नथुनों में वो महक बसने लगती हैं, जो गाँव में मेरे अम्मा के चूल्हे से आती थी इन दौरान बनने वाली- लाई, तिल, गुड़हा तिल पट्टी और बादाम पट्टी। पर इन सबसे इतर ही एक और स्वाद थी जो आज तलक मेरी जिव्हा पर ज्यों का त्यों ही बिराजमान है। वो स्वाद थी – आड़े के औंटे हुए लाल दूध या उसमें जोरन डाल जमाई गई लाल दही का, अपने ही खेत के गन्नों से पके गुड़ का और “ढेंकी” में कूटे अपने ही खेतों के धान के चूड़े का।

ढेंकी वस्तुतः एक प्रकार का लकड़ी निर्मित यंत्र, जो कि स्वचलित मशीनी हालरों या मिलों के अस्तित्व में आने से बहुत पहले मानव द्वारा चलित है। यह फोरै तौर पर एक लंबे लकड़ी का पट्टा होता है जो कि बीच से दो अलग लकड़ी के पाटों के बीच लकड़ी या लोहे की कील से ठीक वैसे हो अटका होता है जैसे कि आजकल के बच्चों के पार्क में मिलने वाला शी-शॉ झूला। पट्टे की आगे की तरफ लकड़ी की ही मुसलाकर आकृति लगी होती है जिसके ऊपरी हिस्से में लोहे का आवरण चढ़ा होता था। इस आवरण को जगह देती है धरती में बनाये गये गड्ढे (ओखल की आकृति) जो कि अमूमन एक हथेली घूमने भर जगह  होती थी, जिसमें मुसल आराम से पड़ सके। वही ढेंके का पिछला हिस्सा होता था नीचे की ओर संकरी होती हुई पाट का हिस्सा जिसमें रहट पड़े होते थे ताकि पैर फिसले नही ढेंके को चलाते वक्त। इस पिछले हिस्से के नीचे भी इसके माप से हल्की बड़ी एक खुंदक होती थी और जब चलाने वाले ( अमूमन औरतें) इस हिस्से पर दबाब देते थे तो ढेंके का वो हिस्सा खुंदक में जाता था और आगे का हिस्सा उठता था, जैसे ही दवाब कम होता था आगे का हिस्सा ओखल में गिरता था और उसमें रखे अनाज पर चोट पड़ती थी, इस प्रकार दबाब को कम ज्यादा कर अनाजों की छटाई कुटाई की जाती थी। इसमें एक और महत्वपूर्ण अंग होते हैं ओखली के पास बैठने वाले जो मूसल के ऊपर से नीचे जाने क्रम के बीच में अपने हाथों से अनाज को उलट पलट करते हैं। थोडी सी भूल और हाथों पर मूसलों का गिरकर उसकी हड्डियों का चूरा बनना। वही अगर अनाजों की पलटी अच्छी नहीं हुई तो अनाज का खराब होना। ठीक वैसा ही हाल उस ओर के साथी का भी, एक तो एक पाँव से ढेंके को दवाब देकर चलाना और अगर थोड़ा भी ध्यान भटका तो मुँह के बल गिरना और पाँव और थथुनों दोनों का ही सत्यानाश।

आज भले ही मशीनी मिलों और हालरों ने इस जटिल प्रक्रिया को आसान कर दिया है पर सच जिन लोगों ने उस महीन और धीमें धीमें कूटे चुड़ों और अनाजों का रसास्वादन किआ है उनके जिव्हा से आजीवन वो स्वाद जाने से रही। मैने अपने घर में ढेंका कूटते देखा है बचपन में। ओखल में डर से हाथ डाल चलाया तो नहीं पर ढेंका के पिछले हिस्से में खूब उत्साह के साथ दवाब दे उसे कुटा है। एक अलग ही माहौल होता था जब एक ही जगह पर घर की लगभग सभी औरतें धान को चुनती कोई उसे ओखली में डाल चलता तो कोई ढेंके को चलाता, फिर उन कूटे अनाजों को हिलोरा और सुप में डाल फटका जाता और तब तैयार होता था खाने के लिए चूड़ा या चावल या दाल। आज की तरह झटपट नहीं की मेगास्टोर गए खरीदा और थाली में परोस दिया गया। ऊपर से औरतों द्वारा गाये जाने वाले कर्णप्रिय गीत – जिन्हें गीतों के वर्गीकरण में श्रम गीत कहते हैं। जैसे कि –

“बाबा काहे लागी बढ़ल लामी केसिया

बाबा काहे लगी भइल मोर बैरन जवनिया

बाबा जे बाटे गइले पियवा मधुबनिया

से बटिया तुहु रे बताई दिहत ना।

 

बेटी झारी ल रे लामी लामी केसिया

कस के बान्हि लS अपनी अंचरिया

जे बाटे गइल तोर पिया मधुबनिया

से बटिया भइले मलीनवा रे ना।”

 

(यानी एक पुत्री अपने पिता से कहती है कि क्यों मेरे बाल नित बढ़ रहे हैं और क्यों ही मैं जवान हो रही हूं? हे पिताजी मुझे वो रास्ता बता दो जिस रास्ते मेरा पति मधुबन गया है।

जबाब में विवश पिता उत्तर देता है की हे बेटी अपने लंबे बालों को बांध लो और अपने आंचल को बांध लो, जिस रास्ते तुम्हारा पति गया है वो रास्ता मलिन हो चुका है)

 

इन्ही गीतों के माध्यम से वो अपनी कुंठाये निकालती थी। सिर्फ दुखियारी गीतों के साथ ही नहीं ढेंका ठिठोली के साथ भी खूब जमती थी। जैसे कि –

 

“कंहा के रे मूंगा मोती, कहां के रे छींट गे सजनी

कहां के रे राजा बेटा जोड़ावे प्रीत गे सजनी

 

भागलपुर के मूंगा मोती, आरा के रे छींट गए सजनी

पटना के रे राजा बेटा जोड़ावे प्रीत गे सजनी।

 

(यानी पहली सखी पूछती है- कहां का मूंगा और मोती प्रसिद्ध है और कहां के छीट प्रसिद्ध हैं, तो कहां का राजा का बेटा है जो मुझसे प्रीत लगा रहा है।

दूसरी सखी उत्तर देती है कि भागलपुर का मोती मूंगा प्रसिद्ध है और आरा की छींट की चुनरी,वहीं पटना के राजा का बेटा है जो तुझसे प्रीत लगा रहा है।)

पर समय की मांग, इसकी अनुलब्धता, संयुक्त परिवार का विघटन इसके विलुप्ति का कारक बना है, फिर भी हमारे जैसे कुछ घरों में नेवान (नए अनाज को भगवान पर चढ़ाने की रस्म) के लिए ही सही साल में दो तीन बार इनका रस्मी कार्य अदायगी होती है, आज गांव में भी बस ये इक्का दुक्का घरों में ही सिमट कर रह गया है। नेवान भी अब छोटे खल मूसलों से होने लगा है।

 

अगर इन गीतों और ढेंके के किस्सों से भी आपके मकर संक्रांति के चूड़े में मिठास बढ़ी तो मेरे लिए वही प्रोत्साहन होगा, बाकी त जे है से हइए है।

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