सोचती हूँ …
सीख लूँ उस पानी के घड़े से
जो किसी भी परिस्थिति में
किसी भी मौसम में
अपने पानी की तासीर
नहीं बदलता
सदा पानी को
ठंडा ही रखता है ।
शायद वो वह जानता है
जिसे हम इन्सान
जानकर भी
अनजाने है
नहीं स्वीकार करते
कि घड़े समान ही
हम भी बने हैं माटी के
माटी में ही मिल जाएँगे ।
स्वार्थ कपट नहीं छोड़ते
अपने ही प्रियजनो से ।।
मत कर मोह इन
रिश्तों के बंधन से
जो है
रेशम के धागों जैसे
या फिर है मकड़ी के जाले जैसे
मत कर
विचलित इस मन को
आहत अपने सहज सरल ह्रदय को
जिस प्रभु की
जीवन पर्यन्त करी
अराधना
छोड़ो कुछ उस पर भी
न्याय करेगा वो ईश्वर ही
तुम्हारे हर दर्द
हर सिसकी का
इन्साफ़ करेगा वो ईश्वर ही
मुझे याद है
तुम कहते थे
‘एहसान फ़रामोश को तो
यह धरती भी नहीं ओटती ‘
मत करो मन मैला
ना किसी से कुछ उम्मीद
ना कोई आशा
याद करो हर दम कि
भगवान के घर देर है
अंधेर नहीं
रात्रि घनघोर काली है आज
तुम्हारी नज़रों में ज़रूर
पर कहीं रोशनी की खिड़की भी
होगी ज़रूर ।
©सावित्री चौधरी, ग्रेटर नोएडा, उत्तर प्रदेश