लेखक की कलम से

स्त्री और ऑफिस …

 

 

स्त्रियाँ ऑफिस को घर समझती हैं

और घर को भी घर

रोज सुबह टिफ़िन बना कर

घरवालों को पड़ोस के ले जाती

कभी-कभार लेट हो जाती

आकर डेस्क पे अपने

ईश्वर को नमन कर

कार्य पे दृष्टि टिकाती

स्त्रियाँ करीने से हर कार्य को

परफ़ेक्ट करने की कोशिश करती

नये-पुराने प्रोजेक्ट्स में

घर पे भी आँखें खपाती

ऑफिस हों या घर

रिश्ते बनाती और निभाती

किन्तु पीड़ा उसे होती जब

उसे कमतर आंका जाता

उसका क्रेडिट कोई और

भाई-बंधी में खा जाता

लिंग के भेदभाव का पक्ष

बॉस को लेती पाती

स्त्री वहीं टूट जाती

और ऑफिस को ऑफिस में ही छोड़ आती …

 

©वर्षा श्रीवास्तव, छिंदवाड़ा, मध्यप्रदेश

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