लेखक की कलम से

मेरे हिस्से का त्यौहार क्यों नहीं आता …

 

बचपन से ही अनुराधा को हर त्यौहार चाहे होली हो या दीवाली, नवरात्रि हो या रक्षाबंधन अच्छा लगता था। एक उमंग सी रहता था लेकिन धीरे-धीरे बढ़ती उम्र के साथ उसकी रुचि त्यौहार से हट सी गई। जैसे ही कोई त्यौहार आने वाला होता उसमे चिड़चिड़ापन आने लगता, मानो मन ही मन त्यौहार क्यों आ गया सोच रही हो।

अनुराधा की मां ने यह बात जान ली थी, के अनुराधा अब त्यौहारों से कचुआने लगी है। उसे अब बचपन की तरह त्यौहारों में कोई खुशी या उमंग नहीं दिखती।

मां ने अनुराधा से जानना चाहा के उसकी इस बदले सोच या व्यवहार का क्या कारण है। अब क्यों त्यौहारों में वो रुचि नहीं ले रही।

और अनुराधा का जो जवाब था उससे लगभग हर महिला सहमत होगी।

 

अनुराधा कहती है – जब भी कोई त्यौहार आता है, हम महिलाओं पर दोगुनी जिम्मेदारी आ जाती है।

दिनभर ऐसा गुजर जाता है के पता ही नहीं चलता और ऊपर से थकान ऐसी होती है के त्यौहार को सेलिब्रेट करने का मन ही नहीं करता। और ऐसा एक नहीं हर त्यौहार पर होता है। आखिर एक महिला कितना और कब तक संभाले घर को?

ऊपर से त्यौहारों के एक्सट्रा काम, साफ सफाई, घर की साज सज्जा, त्यौहारों पर मीठी, नमकीन डिशेस, फिर रोज़ का खाना, बर्तन, कपड़े, बच्चों की देखभाल, पूजा पाठ और उसकी तैयारी, त्यौहारों के जरूरी सामान कि खरीददारी। और ऊपर से इन सब तैयारियों में थोड़ा बहुत लेट हो जाओ तो घर के पुरुषों की चिड़ चिड़। अब इन सबके बाद इंसान में हिम्मत ही कहां बचती है, कि वो अपने आपका ध्यान रखे या सजे संवरे।

 

मां अनुराधा की बात सुनकर गहरी सोच में डूब जाती है जैसे के किसी ने उसके दर्द को बिल्कुल सही शब्द दे दिए हों।

 

कुछ समय बाद अनुराधा फिर से बोल उठती है -वो तो भला हो उस सोशल मीडिया का जिसके कारण आजकल इन सब कामों के बाद भी महिलाएं सोशल मीडिया पर हैप्पी मोमेंट्स शेयर करने के लिए थोड़ा खुद पर ध्यान दे देती हैं। वरना त्यौहारों को सेलिब्रेट करना कहां उनके नसीब में है।…

और अनुराधा के इस कथन के साथ ही कमरे में एक अजीब सी खामोशी छा गई।

 

इस छोटी सी कहानी का निष्कर्ष –

ये कहानी आमतौर पर हर महिला की है। साल दर साल पुरुषों की ज़िंदगी में बदलाव आते रहते हैं। एक जॉब से दूसरी जॉब बदलती है अनुभव बदलते हैं।

लेकिन एक औरत ही है, जो किचन में लगी थी, लगी है और शायद हमेशा लगी रहेगी। और आजकल के मॉडर्न युग में तो जिम्मेदारियों का अंबार है महिलाओं को तो जॉब भी मैनेज करना है और घर भी।

ऐसे में क्यों ना त्यौहारों पर महिलाओं को एक अनोखा तोहफा दिया जाए। यहां तोहफ़े का मतलब महंगी साड़ियों, ज्वैलरी या डायमंड से नहीं है, बल्कि उन एक्स्ट्रा जिम्मेदारियों से कुछ समय के लिए उन्हें मुक्त करने से है जो हर त्यौहार पर महिलाओं पर होती है।

क्यों ना कुछ त्यौहारों पर पुरुष इन तैयारियों की जिम्मेदारी लें उदाहरण के लिए रक्षाबंधन ही ले लो। रक्षाबंधन पर भाई अपनी बहनों को अपने हाथों से बना खाना ही खिला दे घर की थोड़ी साफ सफाई साज सज्जा में ही भाग लेले वो ही बड़ी राहत हो सकती है। एक दिन ही सही उसे कुछ कामों से छुट्टी तो मिलेगी। और साथ ही थोड़ा आराम भी मिलेगा। यकीन मानिए यह तोहफा उन्हें जरूर पसंद आएगा।

    ©परिधि रघुवंशी, मुंबई    

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