लेखक की कलम से
आग…
देख रही हूँ
तटस्थता से
रोटी की जगह
आग पकड़ती औरतों को
दृश्य नहीं दृष्टा हैं वो
अवमूल्यन के दौर में
बेहद मूल्यवान
बदसूरत तारीखों में
खूबसूरती की मिसाल
रीढ़ की हड्डियों में दर्द नहीं
हौंसला जमा कर जमी हैं
सर्द रातों में
शान्त स्वर और सीधे शब्द
बहुत प्रबल हैं
तख्तियाँ उलट दोगे
तो
तख्त नहीं बचा पाओगे ….!!!
© पूनम ज़ाकिर, आगरा, उत्तरप्रदेश