लेखक की कलम से

तीन बूंद मधु की….

कितना समझाया था मैंने
कि मत इज़हार करो तुम
पर तुमने मेरी एक न मानी
मन भर की मनमानी

गरल पीने का आदी ये
देख के अमृत घट ललचाया था।
तीन बूँद मधु की चखकर
होकर मधुमय बौराया था।
जनम जनम का कृपण ये
बन बैठा था दानी
मन ने की मनमानी
मन भर की मनमानी

अधर घट छलका अधरों पर
सोया उर चैतन्य हुआ।
पावन प्रणय जल में धुलकर
दूर देह का मालिन्य हुआ।
इस आहन पे भी चढ़ा
अब सोने का पानी
मन! कर न मनमानी
मन भर की मनमानी

जोड़ा जितना भी खुद को
आज तुझे समर्पित कर दूँ।
जी करता इक बार फिर
तेरे काँधे पे सिर धर दूँ।
साँसों का क्या फिर लौटे न लौटे
दुनिया आनी जानी
मन कर ले मनमानी
मन भर की मनमानी।

©रचना शास्त्री, बिजनौर, उत्तरप्रदेश

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