लेखक की कलम से

दो मौत कई सवाल.. सबको सोचना होगा

मुंबई के सबसे सुसंस्कृत और शांत समझे जाने वाले इलाके विले पार्ले में अकेलेपन से तंग आकर मां-बेटी का आत्महत्या कर लेना महज एक साधारण घटना नहीं है बल्कि ये शहरी जिंदगी में बढ़ते अवसाद, बुढ़ापे और अकेलेपन जैसे कई सवालों से हमेशा झकझोरता है। ये भी सवाल कि भीड में घिरे होकर भी कोई इतना अकेला क्यों हो जाता है। क्या सोसायटी केवल नाम के लिए है असल में हर शख्स इस शहर में अकेला है। सवाल ये भी है कि लंदन में जा बसे उनके इकलौते बेटे के पास क्या इतना भी वक्त नहीं कि वो मां और बहन की खबर लेता रहे।

विले पार्ले में परांजपे स्कीम सोसायटी की 72 साल की मीरा परांजपे और उनकी बेटी मंजिरी परांजपे ने घऱ में ही फांसी लगाकर जान दे दी। पड़ोसियों को भी पता तब चला जब कामवाली आई और दरवाजा नहीं खुल रहा था। परांजपे परिवार की इन दोनों महिलाओं ने अकेलेपन से तंग आकर जान दे दी थी। क्या सचमुच जीवन के कोई मायने नहीं बचे या ये शहर इतना निर्दयी हो गया कि उनकी बात सुनने का किसी को वक्त तक नहीं। आज के दौर में जब हर कोई व्हाट्सएप और फेसबुक जैसे सोशल मीडिया पर खुद को लगातार खुश और जिंदादिल दिखाने की कोशिश कर रहा है तो क्या सचमुच किसी के पास वक्त नहीं कि जो ऐसे परिजनों की बात तो सुन सके।

विलेपार्ले में बसे पुराने बाशिंदों की तकलीफ इससे कई गुना है। विलेपार्ले में पांच में से एक घर की यही कहानी है जहां जीवनभर नौकरी करने के बाद पारंपरिक मराठी और गुजराती परिवार रहते हैं जो लगातार किसी ना किसी सार्वजनिक उत्सव में शरीक भी होते हैं लेकिन घर में बहुत अकेले हैं। ज्यादातर घरों के बच्चे उच्चतर पढ़ाई करने के बाद विदेश चले गए हैं और अब मुंबई की भीड़ भरी ट्रैफिक वाली दुनिया में लौटना भी नहीं चाहते हैं। उम्रदराज हो चुके लेकिन आर्थिक तौर पर ठीक-ठाक बुजुर्ग अब विदेश जाकर वहां की जिंदगी से दो चार नहीं होना चाहते। जाहिर ऐसे हालात बनते जा रहे हैं कि अब सब अकेले हैं। बेटा विदेश में तो मां बाप यहां।

मुंबई में ही सीनियर सिटीजन्स के साथ यहां घरों में मारपीट और दुर्वयव्हार की घटनायें भी लगातार बढ़ रही हैं। हर घर में ये झगड़ा है कि मां-बाप के बाद घर किस को मिलेगा। जहां बेटे विदेश चले गये वो पूछने तक नहीं आते। परांजपे परिवार का हाल भी यही था। पति की मौत के बाद मीरा और उनकी बेटी ही एक दूसरे का सहारा थीं। बेटी मंजिरी की शादी नहीं हुई थी और वो भी अपने अवसाद का शिकार थी। बेटा सिर्फ पिता की मौत के समय आया और उसके बाद नहीं लौटा।

जाहिर है इसका हल अगर परिवारजन नहीं दे सकते तो समाज तो दे ही सकता है। सबसे पहले जरुरत है कि नई पीढ़ी को दादी-नानी की जरुरत और उनके फायदे बताए जाएं। समाज भी एक दिन बुजुर्गों के साथ जैसी पहल करे ताकि नयी पीढ़ी के बच्चे या युवा एक दिन उनके साथ गुजारे। इसके लिए हो सके तो युवाओं का सम्मान किया जाये। बुजुर्गों को भी आरामतलब अवसाद भरी जिंदगी छोड़कर जिंदादिल होना पड़ेगा साथ ही समाज में योगदान देना होगा ताकि उनकी आवश्यकता बनी रहे। कुछ नहीं तो रोज सुबह होने वाली सफाई, पर्यावरण, योग व सामाजिक कार्यक्रम में अपनी भागीदारी बढ़ाएं। पड़ोसी से सबसे बेहतर संबंध बनाये रखें क्योंकि सबसे पहले वही काम आता है। सबसे बड़ी बात ये है सभी सोचे कि आज तुम्हारी तो कल हमारी बारी है। इसलिए संबंध केवल इस्तेमाल के लिये नहीं।

©संदीप सोनवलकर, मुंबई

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