लेखक की कलम से

बनिहार …

सुरुज उवत माथ नवाथौं,

धरती दाई तोर सेवा बजाथौं,

बासी पेज नून चटनी खाके,

तिपत भोंभरा म पसीना गिराथौं,

नइ जाने मोर कोन्हों करलाई,

टूटहा छानी म जीव जुड़ाथौं,

चिरहा ओनहा म तन ल ढाकौं,

काकर कर मोर पीरा बताओं,

दुख पीरा सहिके तोर रूप सवारों,

मे बनिहार बनिहारेच रहिके,

जांगर पेरत दिन रतिहा पहाथौं,

जानो घलो कोन्हों मोर पीरा ल रे,

मान बड़ई आज मोला देवादो,

मे बनिहार बनिहार रहिके,

धरती दाई तोरेच रोज रूप सँवारौ,

©योगेश ध्रुव, धमतरी, छत्तीसगढ़          

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