लेखक की कलम से

जिन्होंने रखी स्त्री शिक्षा की नींव..

सावित्री बाई फूले की जयंती पर विशेष

लोग सच कहते हैं –

औरतें बेहद अजीब होतीं है

रातभर पूरा सोती नहीं

थोड़ा-थोड़ा जागतीं रहतीं हैं

नींद की स्याही में

उंगलियां डुबो कर

दिन की बही लिखतीं

टटोलती रहतीं हैं

दरवाजों की कुंडियां

बच्चों की चादर

पति का मन..

और जब जागती हैं सुबह

तो पूरा नहीं जागती

नींद में ही भागतीं हैं

सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं

हवा की तरह घूमतीं, कभी घर में, कभी बाहर…

टिफिन में रोज़ नयी रखतीं कविताएँ

गमलों में रोज बो देती आशाएं

पुराने अजीब से गाने गुनगुनातीं

और चल देतीं फिर

एक नये दिन के मुकाबिल

पहन कर फिर वही सीमाएं

खुद से दूर होकर भी

सब के करीब होतीं हैं

औरतें सच में, बेहद अजीब होतीं हैं

कभी कोई ख्वाब पूरा नहीं देखतीं

बीच में ही छोड़कर देखने लगतीं हैं

चूल्हे पे चढ़ा दूध…

कभी कोई काम पूरा नहीं करतीं

बीच में ही छोड़कर ढूँढने लगतीं हैं

बच्चों के मोजे, पेन्सिल, किताब

बचपन में खोई गुड़िया,

जवानी में खोए पलाश,

मायके में छूट गयी स्टापू की गोटी,

छिपन-छिपाई के ठिकाने

वो छोटी बहन छिप के कहीं रोती…

सहेलियों से लिए-दिये..

या चुकाए गए हिसाब

बच्चों के मोजे, पेन्सिल और किताब

खोलती बंद करती खिड़कियाँ

क्या कर रही हो ?

सो गयी क्या ?

खाती रहती झिड़कियाँ

न शौक से जीतीं हैं,

न ठीक से मरतीं हैं

कोई काम ढंग से नहीं करतीं हैं

सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं।

कितनी बार देखी है…

मेकअप लगाये,

चेहरे के नील छिपाए

वो कांस्टेबल लड़की,

वो ब्यूटीशियन,

वो भाभी, वो दीदी…

चप्पल के टूटे स्ट्रैप को

साड़ी के फाल से छिपाती

वो अनुशासन प्रिय टीचर

और कभी दिख ही जाती है

कॉरीडोर में, जल्दी-जल्दी चलती,

नाखूनों से सूखा आटा झाड़ते,

सुबह जल्दी में नहाई

अस्पताल में आई वो लेडी डॉक्टर

दिन अक्सर गुजरता है शहादत में

रात फिर से सलीब होती है…

सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं

सूखे मौसम में बारिशों को

याद कर के रोतीं हैं

उम्रभर हथेलियों में

तितलियां संजोतीं हैं

और जब एक दिन

बूंदें सचमुच बरस जातीं हैं

हवाएँ सचमुच गुनगुनातीं हैं

फिजाएं सचमुच खिलखिलातीं हैं

तो ये सूखे कपड़ों, अचार, पापड़

बच्चों और सारी दुनिया को

भीगने से बचाने को दौड़ जातीं हैं…

सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं।

खुशी के एक आश्वासन पर

पूरा-पूरा जीवन काट देतीं हैं

अनगिनत खाईयों को

अनगिनत पुलों से पाट देतीं हैं.

सच है, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं।

ऐसा कोई करता है क्या ?

रस्मों के पहाड़ों, जंगलों में

नदी की तरह बहती…

कोंपल की तरह फूटती…

जिन्दगी की आँख से

दिन-रात इस तरह

और कोई झरता है क्या ?

ऐसा कोई करता है क्या ?

सच में, औरतें बेहद अजीब होतीं हैं..!

-गुलज़ार

©संकलन– संदीप चोपड़े, सहायक संचालक विधि प्रकोष्ठ, बिलासपुर, छग
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