ये डर डराता है ….
ये डर डराता हैं
हम ज़िंदा है या
रोज़ मृतक हैं
हम चलता फिरता देह हैं
या पुरानी नई एक घात हैं
समझ और संभल का जवाब हैं
हर एक एहसास को जीते
डर का खंडहर में खड़ा खड़ा वीरान हैं
चलते करोड़ों की आबादी है
ये बस लाशों की आतिशबाजी हैं
कोसती आवारा आवाजे हैं
सुन्न सी हुई अनसुनी तबुतो में खूनी लिफाफे हैं
ये सवाल की जकड़न गले लगाती हैं
ए खुदा हर्षिता की कलम चिंघाड़ लगाती है
चींटियों ने घर किया यह देह व्यापार हैं
हम सब अगर सच्चे है तो ये झूठ लफ्ज़ कहा से लाती हैं
अगर हम सब नेक है तो ये मुखौटे का बहिष्कार क्यू नही बताती हैं
अगर हम आज आज़ाद है तो हर एक के मुंह में सवाल क्यू है
अगर दिमाग़ सबके पास है तो दूसरे पर शतराज़ का राजा ही क्यू करता राज़ है
अगर सुकून तुम्हे नहीं तो विराम लगाने के हक़ का जवाब तुम्हे कहा है?
ए इंसान अपने पर काबू कर अपना हथियार (ज़ुबान, आंखे, हाथ , कान,)
आजमाने है तो जो उबाल उठता हैं ये मैगनेटिक नहीं ये सब गुमान नही ये सब आज है
बस ये सब कल नही क्युकी ये कल आज और कल कर्म का हिसाब है
स्वाह होता सच हुक सा लगता है
स्याह से काला कर्म कब्र सा लगता है
©हर्षिता दावर, नई दिल्ली