लेखक की कलम से

बहुरूपिया …

दीपावली का दूसरा दिन हम बच्चों के लिए बड़े उत्साह का दिन हुआ करता था ,आप सोचेंगे दूसरा दिन जी हाँ इस दिन हम दीपावली पर लिए नए कपड़े पहनते थे जो उन दिनों साल में दो बार ही  मिला करते थे एक जन्मदिन और दूसरा दीपावली पर।

इस तरह सज धजकर घर पर बनी मिठाइयां थाली पर सजा कर अपने आत्मीय परिवार के यहां देने जाना और बदले में उनसे अपने नए कपड़ो की तारीफ़ और उनके घर की मिठाई मिलती थीं। ये हमे सबसे ज्यादा पसंद था।

उस दीपावली के अगले दिन मैं और मेरी छोटी बहन घर से थोड़ी दूर जायसवाल आंटी के घर गए थे ,उनके घर की गुझियां और मठरी बड़ी स्वादिष्ट होती थीं जिसे हम घर के रास्ते में ही चट कर जाते थे उस दिन भी हमारी नज़र पूरी तरह अपने लक्ष्य पर थी कि तभी सामने से एक व्यक्ति जिसके पेट में एक तलवार आर पार थीं और लहुलुहान सा सामने से कराहता हुआ चला आ रहा था, हम दोनों बहनों के छक्के छूट गए तेजी से दौड़ते हाँफते काँपते घर पहुँचे और माँ को सारा किस्सा सुनाया तो माँ हँसकर  बोली अरे वो तो बहुरुपिया है।

उनदिनों दीपावली के त्यौहार में बहुरूपिया भी आया करता था ,पाँचो दिन अलग अलग भेस धर कर हम सब को अपनी अदाकारी से चकित कर देता था ,हम सब बच्चे दीपावली आते ही उसका भी इंतजार करते।

अगले दिन वह बहुरूपिया बख्शिश लेने आया तो मैं बाबा का कुर्ता पकड़े उसे देख रही थीं वह पैसो का तकाज़ा कर रहा था कह रहा था साहब महँगाई बहुत बढ़ गयी है आखिर वह बहुरूपिया भी रुपए के आगे लाचार था।

कुछ सालों में उसके आने का सिलसिला पाँच से एक दिन और फिर ख़त्म ही हो गया हाशिये पर रहने वाले लोग हमारे जीवन से कब ग़ायब हो जाते हैं हमें पता ही नहीं चलता।

 

    ©वैशाली सोनवलकर, मुंबई     

Back to top button