लेखक की कलम से

मूल्यांकन तो स्वतः नारी को ही करना होगा….

क्या नारी कोई मॉडल है ? मनोरंजन का साधन है या फिर संस्कारों को पोषित करने वाली संवर्धिनी ? मूल्यांकन तो स्वतः नारी को ही करना होगा। हमारी संस्कृति के अनुसार नारी परिवार व समाज की अस्मिता है। इसलिए हमारे पूर्वजों ने उसे संभालकर रखने तथा उसके संरक्षण हेतु कुछ विशेष नियम भी बताये।

दूसरी ओर हमारे समाज में रेव पार्टियों का चलन बढ़ रहा है, जहाँ आचरण में किसी प्रकार की सामान्य बंदिशों की कोई जगह नहीं है। होटलों, फार्म हाउसों, म्युजिक सेंटरों, बारों से लेकर अब तो नामी विवाह भवनों और यहाँ तक की कुछ घरों में, जहाँ बड़े परिवार नहीं हैं, ऐसी स्वच्छंद पार्टियों का चलन हो गया है। नगरों, महानगरों में आधी रात ऐसे युवक-युवतियाँ, रेव पार्टियों में आपत्तिजन स्थिति में पकड़े भी जाते हैं। आज उन्मुक्तताओं का यह चलन पुरानी मान्यताओं, कानून और सामाजिक बंदिशों को ध्वंस करने के लिए आतुर है। इस भयावह उन्मुक्ता को रोकने में कानून की भी अपनी सीमाएं हैं, फिर उपाय क्या?

वर्तमान में भारत में नारी उत्थान की अवधारणा की उल्टी गंगा बह रही है। नारी-पुरुष के मध्य समानता व अधिकारों की बातें कही जा रही हैं पर क्या स्त्री को राजनीति, नौकरी, उद्योग जगत में अधिकार मिल जाने से उसका उत्थान हो जाएगा? हमारे बुद्धिजीवियों ने देश के विकास के लिए बहुत सी योजनाएं तो बनाई परंतु नारी की ओर देखने की पुरुष की दृष्टि पर कभी चिंतन नहीं किया। यही कारण है कि आज के फिल्मों के गीत, कहानी, व्यवसाय जगत, मॉडलिंग, एक्टिंग और नृत्य के नाम पर भारत की नारी की अस्मिता की बोली लगाई जाने लगी है। साथ-साथ यश और समृद्धि की लोकलुभावन बनने की होड़ ने भी, पुरुषों की दृष्टि को कामुक बना दिया है। बात करें शिक्षा की तो, शिक्षा का मुख्य उद्देश्य ‘विद्यार्जन’ है विद्या के बल पर जीवन की समस्त कठिनाइयों को पार कर अपने लक्ष्य की प्राप्ति का भाव इसमें निहित है। विष्णु पुराण में कहा गया है कि ‘सा विद्या या विमुक्तये’अर्थात् वह जो (अज्ञान) से मुक्ति प्रदान करे वह विद्या है। नारी शिक्षा के सन्दर्भ में भी यही संकल्पना रही है। परंतु आज शिक्षार्जन के अर्थ बदल रहे हैं शिक्षा का उद्देश्य ज्ञानार्जन के बदले अर्थार्जन हो गया है। इस विचार ने जीवन के प्रति मानव का दृष्टिकोण ही बदल दिया। भौतिक सुख-सुविधाओं को प्राप्त करने की होड़ सी मच गई है। इसलिए भारतीय नारी भी दिन-प्रतिदिन विकास करती नज़र आ रही है। ऐसा होना चाहिए कि नारी भी अपनी शिक्षा के द्वारा परिवार, समाज व राष्ट्र के विकास में भागीदारी निभाये। पर दोनों में परस्पर तुलना क्यों? स्त्री यदि शक्ति है तो पुरुष भी शिव है। दोनों का ही अपना-अपना महत्तव है। बस आवश्यकता है कि पुरुष व नारी, दोनों के द्वारा अपनी-अपनी पवित्रता का जतन करते हुए एक दूसरे के सम्मान की रक्षा करें और ऐसे समाज की रचना करें जहाँ पवित्रता का पोषण हो, जहाँ शक्ति का सम्मान हो।

यदि पुरुषों की भांति नारी धूम्रपान या मद्यपान करने लगे, तब समाज का क्या होगा ? फिर तो पूरे समाज में नैतिकता के सारे आदर्श ही समाप्त हो जायेंगे। एक स्त्री के कारण ही, समाज में जीवन-मूल्य तथा संस्कारों के बीज सुरक्षित है, जब वही संस्कारों की रक्षा व संवर्धन पर गौरवान्वित होने की अपेक्षा, केवल आकर्षक व आसमान छूने के क्षणिक व तथाकथित सुख पर ही गर्व करने लगेगी, तब क्या होगा?

अगर स्त्री वर्ग स्वयं को सुरक्षित व सम्माननीय दिखाना चाहता है तो उसे ज्ञान, गुण व चरित्र सभी को संभालना होगा। जैसे- रावण जैसे महादानव को पतिव्रता के व्रत से परास्त करने वाली सीता भी नारी ही थी, अंग्रेजों के विरूद्ध दुर्गा की भांति रणक्षेत्र में लड़ने वाली लक्ष्मीबाई भी नारी ही थी। फिर उन महान आदर्शों की अवहेलना क्यों?

अगर पुरुष व्यवचारी हैं तो नारी को भी स्वयं से यह प्रश्न तो करना ही होगा कि उसे पुरुष के अनुरूप ढलने की आवश्यकता क्यों आन पड़ी जबकि वही पुरुष को जन्म देने वाली है। साथ-साथ नारी को नारी ही रहना है क्यों बने वो पुरुष ???

 

©रश्मि अग्रवाल, नजीबाबाद, बिजनौर, यूपी

परिचय- प्रकाशित कृति- कहावतों की रोचक कहानियां, इंद्रधनुषी, योग साधना और स्वास्थ्य, बाल कहानियां, 500 आलेख, 110 कहानियों का प्रकाशन, ‘हम’ पुस्तक पर राष्ट्रपति पुरस्कार, नेपाल सहित अनेक शहरों में सम्मान व पुरस्कार।

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