शब्द कोष सुधारना चाहती हूं ….
शब्द कोष सुधारना चाहती हूं मैं
अभी तक अ से अनार ही लिखती आई हूं मैं
पर अब अ से अंगार जो दिलों में
असफलता को अनर्थ की राह पर ले चलता है ,
असमंजस में फंसा दिल आराम की सांस भी लेना चाहता हैं
अत्याचार से बचकर उस खुले आसमां में उड़ना चाहता हैं,
अभी तक क से कबूतर या कलश ही लिखती आई हूं मैं
लगता था कबूतर प्रेम के संदेश पहुचते है,
कलश हर नई शुरुवात की स्थापना करवाता हैं
पर क से कलंक कब से दिखने या समझ नहीं आया,
दुनियां के कोलाहल में कल्पनाएं हमारी काल्पनिक होती गई ,
कीचड़ में लिपट कर कलंकित क्यू हो गई?
अभी तक ख से खरगोश लिखती आई हूं मैं
पर आज ख से खामखां के खराश बनती
जीवन की सच्चाई से परे करवाते हैं
पर ख से ख़तरे का एहसास एक अजीब सी
आहट खोने कि आने लगती हैं क्र्यूं ?
अभी तक घ से घर ही लिखती आई हूं मैं
पर घर में बसता सबका मन है ,
घर घर है वहीं घरौंदा है,
जिसमे रिश्तों को घसीटा रिश्तों की
मर्यादा ख़तम करता क्र्यूं हैं
अभी तक फ से फूल ही लिखती आई हूं मैं
किसी से बोला फ फ़िलहाल काफ़ी हैं,
फ़लसफ़ा ज़िन्दगी का फ़रमान कागज़ों पर
सवाल फाश करता है क्र्यूं ?
इन्हीं फूलों को बड़े अरमानों से सजाई चादर पर बिछा ता है, प्रभु को फूलों की माला से सुशोभित करता हैं, किसी के गाले मिलने का बहाना बन जाता हैं, किसी के बॉम्ब लगा कर मौत का कारण बन जाता हैं, प्रेम का एहसास करवाता हैं, अतिम यात्रा का हिस्सेदार बन यादगार बन जाता हैं क्या क्या फूलों का सफ़र शुरुवात से अंतिम श्वास तक का सफर बन जाता हैं।
अभी तक भ से भालू है लिखती आई हूं मैं
पर किसी से हाथ जकड़ कर भीतर के भरपूर आनंद को
भय लिखने पर भयभीत कर दिया क्यूं ?
दिल को भयंकर आग से भस्म करता
भिन्न भिन्न रूप में संजोया परिवार
बचपन के भूत को भगाता भूल का नाम देकर
भूख को जागता आया हैं क्र्यूं?
भाषा का हिस्सा ,
भाषा को हिंसा का रूप
समाज की हिंसा का कहना बन गया हैं क्र्यूं ?
अभी तक ह से हाथ ही लिखती आई हूं मैं
पर ह से हिंसा भरे हथियार ,
जिससे होती है इंसानियत की हार ,
सब बन जाते हैं लाचार क्र्यूं ?
हम से सीधे शब्दों को धर्म आ धरम का नाम ,
रीति रिवाजों का नाम,
हस्ना भूल कर हार को लक्ष्य बनाकर
हैरत भरी निगाहों से उनके कहने से
हत्या लिखना सीख जाते है
हताश होकर कुछ नहीं होगा ,
कैंडल जलाकर कुछ नहीं होगा
हल्ला बोल कर हरियाली दुनियां में नहीं
इंसान के दिल की बगिया में फूलों की उगानी होगी।
©हर्षिता दावर, नई दिल्ली