लेखक की कलम से

जीवट…..

एक एहसास होता है दर्द का,
देखकर.. उन बूढ़ी, कमज़ोर झुकी हुई हड्डियों को,
जो अभी भी प्रयास रत हैं,
जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं को जुटाने में,
जिन्हें पोसा उसने आस कर सहारा बुढ़ापे का,
पीकर पडे़ हैं,
किसी मदिरालय या वैश्यालय में,
“अम्मा कुछ खाओगी “?
सुनते ही चमक सी उठती है,
झुर्रियों भरे चेहरे पर,
“हाँ बऊजी दै देओ, सुबह से अन्न को एक दानो ना गयो पेट में”,
उसके ये शब्द छील देते हैं मेरा अंतर्मन,
ध्यान से देखती हूँ समझने के लिए,
ऊर्जा का स्त्रोत और जीवन का फलसफा़-प्रारब्ध, कर्म और भाग्य,
पेट में अन्न का कतरा भी नहीं!
और बेइंतेहा शारीरिक श्रम!!
पांच फुटा पतला- दुबला शरीर ,
स्याह काला रंग,
पोपला मुंह, कसकर जूडे में बंधे हुए लाल सफेद मेंहदी लगे हुए बाल,
भर-भर हाथ चूडियां, पायल, बिछवा
काजल और उम्मीद से भरी गढ्ढों में धंसी दो आंखें,
धीरे धीरे काम में जुटे दो बूढ़े हाथ,
कहाँ कमी थी कर्म में ?
शायद पिछले जन्म के कर्मों से प्राप्त प्रारब्ध होगा,
अम्मा! क्यों करती हो इतना श्रम?
का करूँ बऊजी?
जे लबारे जो भूखे प्यासे धूमें ,
देखे न जावें….
जब तक जिंवतीं हों, तब ताऊं खबा दऊं,फिर वा की मर्जी,
जुड़ जाते हैं दौनों हाथ अगाध श्रद्धा से,
अनंत आकाश की ओर देखते हुए,
शायद यही अडिग विश्वास बनाये हुए है उसका जीवट, ,
“कर्म कर फल की चिंता मत कर”
इस गीता सार को समझने के लिए,
उस बूढ़ी माई से बेहतर, शायद ही कोई उदाहरण होगा |||

©विभा मित्तल, हाथरस उत्तरप्रदेश

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