लेखक की कलम से

दिवास्वप्न की उलझन …

 

दिवास्वप्न के इस उलझन में उलझ कर मत फँसना मानव तुम आज ।

पांव जमीन पर ही रख तुम फिर उड़ना आसमान में आप।।

 

आकाश ऊँचाई अनंत है जिसका न कोई छोर।

अपनी शक्ति पहचान कर ही उड़ान भरो आकाश की ओर ।।

 

थाह लिए बिन उतर गए तो सागर गहराई भी है अनंत ।

दिवास्वप्न के इस झंझाबातों में फँसकर न हो जाये अंत ।।

 

चाँद सितारों में चमक बहुत है जो मन को लुभाता है।

इसका मतलव ये तो नहीं की इसको ही तोड़ लाना है।।

 

स्वप्न देखना होश में रहकर यह सार्थक कदम होगा ।

उन स्वप्नों का क्या फायदा जो नींद के साथ खत्म होगा।।

 

शशि की धवल किरण तो बस मानस के चित्त को करता शांत ।

दिवास्वप्नों के इस उलझन में क्या कटोरे में भर लेंगे चाँद।।

 

यह तो बहुत जरूरी की एक एक स्वप्न जीवन का हो साकार।

इसका कतई मतलव नाही की उल्टेसिधे स्वप्न देखने का हो अधिकार ।।

 

स्वप्न अगर ही देखना तो जीवन पथ को करें प्रशस्त।

अपने आनेवाले पीढ़ी को प्रदान करें एक पथ प्रशस्त ।।

 

उस स्वप्न देखने का क्या फायदा जो दिवास्वप्न बनकर रहे।

आदमी के अंतर्मन को जो दिवास्वप्न हीं सालते रहे।।

 

आगोश भरें उस स्वप्न को जो जीवन को करता साकार।

ओस बून्द सी चमक उस दिवास्वप्न का उसका मन से करें वहिष्कार।।

 

©कमलेश झा, शिवदुर्गा विहार फरीदाबाद

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