लेखक की कलम से

ये आज़ादी हमें भी चाहिए ….

 

तुम्हारी आँखों में

दर्दनाक घटनाओं का ज़िक्र है

तुम व्यथित हो

तुम देना चाहती हो

खुलकर गाली

मारना चाहती हो थप्पड़

लटकाना चाहती हो

चौराहे पर अपने हाथ से

कुछ अंग-भंग शरीर

व्यवस्था पर उँगली उठाकर

हक़ीक़त को बदलना चाहती हो

 

एक बारह साला लड़की

एक छोटी नन्ही बच्ची

एक तुम्हारी माँ जैसी औरत

जिन्हें तुम जानती तक नहीं

तुम्हारी आत्मा को कचोट रही हैं

तुम बताती हो मुझे कि….

रेप हुआ है एक लड़की का आज फिर

मैं कहती हूँ …हॉ, जानती हूँ

और…. तुम पलट कर कहती हो

आप …कुछ नहीं जानती

आप …जानती हो तो…..

इतने आराम से कैसे हो  ?

आप कुछ करती क्यों नहीं ?

 

मैं उसको कुछ नहीं समझाती

बस, कहती हूँ

बेटा, नहीं पता कौन वेयरवुल्फ़ आदमी की शक़्ल में घूम रहा हो….

इसलिए तुम्हें अकेला छोड़ने से घबराती हूँ

वो पूछती है

तो क्या मुझे भी डर कर रहना होगा हमेशा आपकी तरह ?

कभी मुझे भी किसी पर  विश्वास नहीं करना चाहिए ?

क्या नहीं है हमें निश्चिंत होने की आज़ादी ?

 

उसके इन सवालों का जवाब नहीं है मेरे पास

बस ..मैं हाथ थामे बैठी हूँ उसका

और वो

डर में नहीं आक्रोश में है

 

सच कहूँ  संकट में हूँ

किसी भी स्त्री बनती बच्ची को

न डरते देखना चाहती हूँ  न आक्रोश में

और  पुरुष

नाही तुम्हें प्रस्तुत करना चाहती हूँ शत्रु………..!!!

 

 

    ©पूनम ज़ाकिर, आगरा, उत्तरप्रदेश     

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