लेखक की कलम से

वो आंखें…

आज शशि सुबह से ही बहुत उदास थी यूं तो उदासी ही उसके जीवन का हिस्सा बन चुकी थी लेकिन आज तो मानो उसे उदासी ने चारों तरफ से घेर लिया था ।

 

लगभग 8 महीने पहले उसके 14 वर्षीय बेटे की मृत्यु हो गई थी आज अहोई अष्टमी वाले दिन वह अपने बेटे के गम में घुली जा रही थी ।उसका किसी व्रत त्यौहार में मन नहीं था ।हर त्योहार से उसका विश्वास उठ चुका था।

 

 

उसका बेटा घर बहुत ही होनहार बच्चा था, एक दिन पतंग उड़ाते समय छत से गिरकर बेहोश हो गया अस्पताल लेकर भागे , जहां उसे ब्रेन डेड घोषित कर दिया गया।

 

 

अचानक आये दुख के पहाड़ ने उन्हें हिला कर रख दिया। उन्हें समझ नहीं आ रहा था उनके साथ क्या हुआ उनका बेटा इस तरह उनको छोड़कर नहीं जा सकता ।

 

 

तभी डॉक्टर आते हैं और उन्हें समझाते हैं कि उनका बेटे के अंग दान करके वे किसी और की जान बचा सकते हैं उन्हें समझ नहीं आया कि क्या करें क्या ना करें।

 

 

इतना बड़ा दुख का पहाड़ ऊपर से बेटे के अंग दान कैसे कर दे। डॉक्टर उन्हें  समझाते हैं कि किसी और को जिंदगी देकर भी अपने बेटे को भी उसमें पा सकते हैं ।

 

 

आखिर में अपने कलेजे पर पत्थर रखकर वे बेटे की आंखें और दिल एक दूसरे बच्चे को देने के लिए तैयार हो जाते हैं लेकिन अस्पताल के नियम के अनुसार यह नहीं बता सकते कि उनके बेटे के अंगदान  किसको दिए गए हैं।….

 

 

आज अहोई ही के दिन अचानक दरवाजे की घंटी बजती है और एक बच्चा लगभग उनके गर्व जैसा ही अंदर आता है । शशि उस बच्चे मे अपने बेटे का प्रतिबिंब देखती है, आंखें तो बिल्कुल उनके बेटे की तरह है।भला मां अपने को कैसे ना पहचाने ।वह बताता है कि उसका परिवार कल ही हैदराबाद से इस सोसाइटी में आया है।

 

 

बातों ही बातों में पता चलता है कि उस बच्चे को आंखें और दिल  किसी बच्चे का अभी आठ  महीने पहले ही मिले हैं जिससे वह देख पा रहा है और जीवित है ।

 

 

शशि कुछ कहती तो नहीं पर अहोई माता की व्रत की तैयारी में लग जाती है…

 

©ऋतु गुप्ता, खुर्जा, बुलंदशहर, उत्तर प्रदेश

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