मैं हस्तिनापुर हूं …
आर्यावर्त की पुण्य धरोहर,
सनातन संस्कृति की थाती हूं।
कर्मवीरों और युद्धवीरों की,
मैं ही तो परिपाटी हूं।।
इतिहास की स्वर्णिम पृष्ठों में,
मैं इंद्रप्रस्थ की घाटी हूं।
कृष्ण ने गीता ज्ञान सुनाया,
मैं वो कुरुक्षेत्र की माटी हूं।।
देवलोक गर्वित हो जिसमें,
वो धर्म धरा जग में मशहूर हूं,
जी हां, मैं हस्तिनापुर हूं—–
राजा भरत की शौर्य गाथायें,
शांतनु की प्रेम पिपासा हूं।
देवव्रत की भीष्म प्रतिज्ञा,
मैं नवयुग की नई आशा हूं।।
विचित्रवीर्य की चित्र कथाएं,
पांडु की छोटी हस्त रेखाएं।
कुरुवंश के उत्थान पतन की,
देखा मैनें अनेक विधनायें।।
अपने वचनों पर मर मिटने वाले,
उन कर्मवीरों के लिए मशहूर हूं।।
जी हां, मैं हस्तिनापुर हूं——
द्रोणाचार्य की अबूझ शिक्षा,
अर्जुन की अद्भुत गुरु दीक्षा।
कर्ण का हर पल अपमान देखा,
दानवीर का बलिदान देखा।।
गांधारी की परवशता कैसी,
मानो कुंती की विवशता जैसी।।
न्याय अन्याय की तुला में तौलती,
मैं अद्भुत किस्सा मशहूर हूं।
जी हां, मैं हस्तिनापुर हूं—–
शकुनि के कपटी चाल को देखा,
लाक्षागृह के मायाजाल को देखा।
दुःशासन और कर्ण के रूप में,
दुर्योधन के अहंकारी ढाल को देखा।।
कुरुवंश के भरी सभा में मैंने,
पांचाली के अपमान को देखा।
धृतराष्ट्र के कपटी न्याय को देखा,
कुरुवंश पर कलंक लगाती,
इतिहास के काले अध्याय को देखा।।
कालचक्र के इस युग में मैं,
कितना बेबस और मजबूर हूं।
जी हां, मैं हस्तिनापुर हूं——-
द्यूत क्रीड़ा का दोष देखा,
बर्बाद होते निर्दोष देखा।
मर्यादा की टूटी सीमाएं,
अपनी व्यथा हम किसे सुनाएं।।
हर आंखें यहां मौन दिख रहा,
बचाने वाला अब कौन दिख रहा।।
एक अबला की देख दुर्गति,
आज मैं शर्म से चूर -चूर हूं।
जी हां, मैं हस्तिनापुर हूं—–
धर्मराज सा धर्मात्मा देखा,
विदुर सा पुण्यात्मा देखा।
द्रुपद, विराट सा नृपति देखा।
धृष्टद्युम्न सा सेनापति देखा।।
कर्ण जैसा दानवीर देखा।
घटोत्कच सा महावीर देखा।।
संजय और विदुर के जैसा,
मैंने यहां आत्मज्ञानी देखा।।
इतना होते हुए आज फिर,
मैं क्यों बेबस और मजबूर हूं।
जी हां, मैं हस्तिनापुर हूं—-
द्रौपदी के परिहास को देखा,
पांडव के वनवास को देखा।
भीष्म को भी हताश देखा,
द्रोण, कृप को निराश देखा।।
पुत्र मोह में अंधे हुए उस,
धृतराष्ट्र के अविश्वास को देखा।
मैं दुर्योधन की धृष्टता और
अहंकार में आज भारी मगरूर हूं।।
जी हां, मैं हस्तिनापुर हूं—–
पाञ्चाली की प्रतिशोध को देखा,
अर्जुन, भीम के क्रोध को देखा।
चक्रव्यूह भेदन करते हुए उस,
अभिमन्यु के अद्भुत जोश को देखा।।
कुरुक्षेत्र के रणभूमि में,
नकुल, सहदेव का म्यान देखा।
कर्मपथ से भटके पार्थ हेतु,
कृष्ण का गीता ज्ञान देखा।।
एक लहू के दो रंग बनकर,
आज अपनों से दूर -दूर हूं।।
जी हां, मैं हस्तिनापुर हूं—-
अपनों की लाशों पर रोते,
कुरुवंश की हर मैय्या देखा।
अर्जुन के गाण्डीव से बिंधे,
भीष्म पितामह की सर-शैय्या देखा।।
कौरव- पांडव के द्वन्द युद्ध में,
चिंतित बलदाऊ भैया देखा।।
नारायण की इच्छा के आगे,
डूबते, तैरते हर नैय्या देखा।।
क्षत- विक्षत लहूलुहान लाशें,
बाकी रही न कोई सांसें।
कुछ मरकर भी अमर हो गए,
पर मैं जीवित होकर भी,
दर्द और गमों से चकनाचूर हूं।
जी हां, मैं हस्तिनापुर हूं—-
धृतराष्ट्र के पुत्र मोह ने,
महाभारत युद्ध को लिख दिया।
कुरुक्षेत्र के रणभूमि ने,
जग को भयंकर सीख दिया।
सत्ता के सिंहासन पर बैठ जब,
कोई आंख बंद कर राज चलाएगा।
सत्य, धर्म और न्याय के ध्वज को,
जो नृप कलंक लगाएगा।।
याद रखो इस धर्म धरा पर,
फिर कोई कान्हा आएगा।।
धृतराष्ट्र के वंश नाश हेतु,
फिर से महाभारत रचाएगा।।
मेरे ह्रदय में दावानल है,
भले ही दिखता शांत जरूर हूं।।
जी हां मैं हस्तिनापुर हूं—–
©श्रवण कुमार साहू, राजिम, गरियाबंद (छग)