सोचती हूँ …
सोचती हूँ
अपनी यादों के बसेरे में
कटु यादों के लिए
कोई कक्ष नहीं रखूं।
भूले से अगर ये
प्रवेश कर जाएं
खुले झरोखों से,
हवा के झोंकों से
किवाड़ों की दरारों से,
भावनाओं की कमजोरी से
तो ये आतिथ्य नहीं स्वीकार करूं,
कण कण इसका
अच्छे से बुहार लूं।
अपने दर के बाहर करूँ।
दुःखद अनुभव जो बीत गए
उन्हें क्यों मैं याद करूँ।
अनचाहे नीर से
क्यों अपने नैनों को नम करूँ।
मुस्कानों पर है हक़ मेरा
तो क्यों ना सुखद
यादों से प्यार करूँ।
क्या ऐसा कर पाऊंगी
सोचतीं हूं।
यादें अच्छी भी तो होती हैं।
आईने की तरहा
सच्ची भी तो होती हैं।
फिर उन्हें क्यों नजरअंदाज करूँ?
यादों के कक्ष से क्यों आजाद करूँ?
कीमती धरोहर समझ कर
क्यों ना हृदय की तिज़ोरी में बंद करूं।
ग़म के अंधेरे जब छाएं कभी
तो इन्ही के दीये रोशन करूँ।
ऐसा कर पाऊं अगर मैं
तो ईश्वर का बेइंतहा शुक्रिया करूँ
मिल पायेगा क्या ये तोहफ़ा
सोचती हूँ …
©ओम सुयन, अहमदाबाद, गुजरात