लेखक की कलम से

राख सी हस्ती …

 

आज जिंदगी क्यूँ मौत से,

इतनी सस्ती हो गई।

आबाद शहर की मानों,

राख सी हस्ती हो गई।।

 

जिंदगी इतनी सख़्त,

अब तक कभी न थी प्रखर।

सपनों का घरौंदा एकाएक,

क्यों गया है बिखर।।

टूटी हुई पतवार,

फूटी हुई, ज्यों कश्ती हो गई—-

 

साजिश और अविश्वास का,

चहुंओर मंजर हो गया।

कपटी, छद्मवेश सा जीवन,

पीठ पे ख़ंजर हो गया।।

तपती मरुभूमि सी,

आज हरेक बस्ती हो गई—-

 

अब तो लोग अपनों की मैय्यत में,

जानें से डरने लगे हैं।

खबर छप रही है हरेक घर में,

कोई अपने मरने लगे हैं।।

लाशों का हिसाब कौन करे,

ये जिंदगी परहस्ती हो गई —

 

इत्ता तो समझ जा रे मानव,

अब तेरी क्या औकात है।

रूप, रंग, धर्म और भाषा,

अब बता तेरी क्या जात है।।

इस मायाबाजार में मानों,

यमदूत की मटरगस्ती हो गई–

 

©श्रवण कुमार साहू, राजिम, गरियाबंद (छग)

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