लेखक की कलम से

जीवित हूं सन्नाटों में

हां हम चुप-चुप रहते हैं।

ये सभी कहते हैं।।

मगर इस चुप में भी।

बहुत कुछ हम कहते हैं।।

लब खुले तो बुरा मनोगे।

आदत मेरी तब पहचानोगे।।

जो चुप ही है मेरी पसंद।

शान्ति भी तो है हरदम।।

न खुलना लबों का मेरा।

कोई नाराज न हो जाये जरा।।

ये गहरी रात के सन्नाटे।

मुझको बहुत हैं भाते।।

ये चुप-चुप ही रहने दो।

मुझे मेरी तन्हाइयों में जीने दो।

©ममता गर्ग, ठाकुरगंज, लखनऊ, उत्तरप्रदेश

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