लेखक की कलम से

रेतीला होता था, अब रुपहला हो गया : कामर्स संकाय …

अन्य शिक्षण संस्थाओं के मुकाबले विश्वविद्यालय क्यों अलग होते हैं? जवाब यहीं कि वह सोचना सिखाते हैं। क्या नहीं, कैसे? यह तथ्य पुख्ता हो गया जब आज (11 जून 2021) इंडियन एक्सप्रेस के प्रथम पृष्ठ पर उच्च शिक्षा पर राष्ट्रीय सर्वे पढ़ा। यह दिल्ली विश्वविद्यालय का सर्वे है कि छात्रों की तुलना में छात्रायें अब बराबर हो गयीं है। जीविकोपार्जन के लाभकारी विषय के अध्ययन में महारत पाने हेतु। इसका निष्कर्ष है कि कामर्स विषय अब छात्राओं की खास पसंद हो गया है। डाक्टरी और विज्ञान तो है ही। यूं भी कामर्स से कई अन्य कैरियर के द्वार खुल जाते है। मगर गमनीय बात यही है कि कभी आर्ट्स भाता था, अब तुलना में युवतियों को कामर्स मनभावन लग रहा है। वर्ना पहले बस बीए किया, संगीत सिख लिया, फिर सिन्दूर और गृहस्थी। वक्त बदला, दुनिया आगे कूच करते जा रही है।

अपने विश्वविद्यालय (लखनऊ) के पुराने और ताजा अनुभवों को आधार बनाऊ तो कुछ ठोस बात लिख पाऊंगा। छह दशक हो गये विश्वविद्यालय छोड़े। दिल्ली के सर्वेक्षण पर जानकारी जमा की तो पता चला ​कि लखनऊ विश्वविद्यालय में भी आजकल वाणिज्य संकाय में सत्तर प्रतिशत छात्रायें है और बकाया तीस फीसदी लड़के है। दिल्ली में यह प्रतिशत पचास—पचास है। एक विशालकाय परिवर्तन हो गया। दूरगामी भी। हमारे दौर (1955—60) में तो कामर्स (वाणिज्य) संकाय बिलकुल रेगिस्तान होता था। छात्रा होती ही नहीं थी। विज्ञान संकाय में सारे छात्राएं दर्जे या फिर प्रयोगशालाओं में बसतीं थीं। लॉ फेकल्टी वाले नाश्ते के बाद क्लास में प्रगट होते थे, और लंच पर घर चले जाते थे। बस एकमात्र आर्ट्स फेकल्टी (कला संकाय) था जो हराभरा, रंगीन, लुभावना, नयनानिभिराम और नखलिस्तान जैसा होता था। कामर्स संकाय से एक खौफ और होता था क्योंकि चीफ प्राक्टर डा. केसी सरकार ही अध्यापक होते थे। वह कामर्स के डीन थे। छात्रों की दृष्टि में प्राक्टर हिटलर—मुसोलिनी का प्रतिरुप होता है। संकाय नीरस, तो प्राक्टर कठोर। अर्थात करेले पर नीम। हालांकि नये जमाने में अब जीविका का महत्व काफी बढ़ गया है। कैरियर पहली आवश्यकता हो गयी है। तो स्वाभाविक है नर—नारी के समानतावाले युग में विषय भी कामन हो गये है। इसीलिये जो विषय कभी अस्पृश्य था, अब वरीय हो गया है। मुझे याद हे कि जब मैं राजनीति शास्त्र में एमए कर रहा था तो उधर कामर्स में जगदीश गांधी (अग्रवाल)और स्व. दाऊजी गुप्ता (लखनऊ के महापौर) पढ़ते थे। दोनों के लिये वाणिज्यीय विषय मुफीद था। व्यापारिक अभिरुचि के कारण।

इसी परिवेश में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में विकास पर गौर करें तो कुछ अन्य विश्वविद्यालयों के सामने हमारा लखनऊवाला बेहतर प्रतीत होता है। मसलन यहां नकारात्मक सोच ने अभी कब्जा नहीं जमाया है। यहां अफजल गुरु और याकूब मेमन जैसे भारतशत्रु आतंकियों की फांसी पर शोकसभा नहीं मनायी गयी थी, मार्क्सवाद की आड़ में यौनशोषण नहीं किया जाता है। इतिहास की घटनाओं को विचारधारा के नाम पर मिथ्यापूर्ण नहीं बनाया जाता है। सोचने की स्वतंत्रता है, अनुशासन के दायरे में। पुरातत्वशास्त्री के.के. मोहम्मद की आत्मकथा से इसकी पुष्टि हो जाती है कि भारतीय इतिहास को कैसे, कब, क्यों मरोड़ा गया था?

लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्रों की ऐसी नौबत कभी नहीं आयी कि कोई न्यायिक जांच का आदेश देना पड़ा हो। सवाल यह है कि छात्रों का वैचारिक स्खलन क्यों होता रहा है? इलाहाबाद हाईकोर्ट ने (4 फरवरी 2019) को निर्देश दिया था कि अलीगढ़ तथा काशी विश्वविद्यालय के छात्रों के व्यवहार की जांच हो। लखनऊ विश्वविद्यालय से  विधि स्नातक रहे, न्यायमूर्ति अजय भानोट द्वारा शिक्षण परिसर की हिफाजत हेतु ऐसा आदेश दिया गया था।

अधुना देश के उच्च शिक्षण संस्थाओं परिसर की दशा देखकर यह आवश्यक लगता है कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को समाप्त कर,  नयी संस्था बने जो बदलते वैश्विक माहौल में अध्ययन, शोध तथा प्रवीणता को प्रोत्साहित करने वाले ध्येय को लेकर चले। कौशल का विकास हो। मगर यह याद रखना होगा कि शिक्षा के क्षेत्र में गुण तथा प्रतिभा ही निर्णायक होते है। चूंकि यह व्यक्तिगत बौद्धिक दशा पर आधारित है अत: मेधा के क्षेत्र में प्रतिद्वंदिता लाजिमी तौर पर श्रेष्ठतर ही होगी । इसमें न समानता हो सकती है और न आरक्षण। प्रमाण लखनऊ विश्वविद्यालय का वाणिज्य संकाय है जहां छात्रों को छात्रायें पछाड़ कर अग्रसर पर हो रहीं हैं। मगर इस रेस में दशकों लग गये। यह त्रुटि रही। अवसर का अभाव इसका मूलभूत कारण है।

 

©के. विक्रम राव, नई दिल्ली                                           

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