माँ तुम सा कोई न…
तेरी ऊँगली थाम कर जब चलती थी
माँ मैं खुद को महफूज़ पाती थी
बिस्तर पर बेख़ौफ़ सोती थी
जब तू प्यार से लोरी सुनाती थी
मेरे कदमों की आहट पहचान लेती थी
जब मैं थककर स्कूल से घर आती थी
कोशिश करती हूँ पर चाय वैसी बनती नहीं
जो मलाई मिलाकर तू मुझे पिलाती थी
तुझसे ही तो सीखा मैंने कविताएं लिखना
जब मैं लिखती और तू गल्तियां बताती थी
तुझे याद है जब मैं मामा के घर थी
तू मेरे लिए नई फ्रॉक बनाकर लाती थी
संस्कार समझ व्यवहार सब तो दिया तूने
माँ से एक पल में दोस्त बन जाती थी
सब कहते भी थे भोली माँ की भोली बेटी
और तू सुनकर मुस्कुरा जाती थी
अब वो दिन बड़े याद आते हैं
जब मैं बिंदास खिलखिलाती थी
सब कुछ बदल गया मेरी बिदाई के साथ
न वो तेरे जैसी ऊँगली मिली
न वो बेख़ौफ़ सोना मिला
न वो तुझ सी मुहब्बत मिली
न वो तेरी गोद सा बिछौना मिला
यूँ तो मिला काफिला ज़िन्दगी में
मगर माँ तुझ सा कोई न मिला।।
©सविता गर्ग “सावी” पंचकूला, हरियाणा