लेखक की कलम से

कुछ पूछना है तुमसे……

सुनो… कुछ पूछना था तुमसे..
कुछ सवाल उमड़ रहे थे ज़ेहन में..
उत्तर तो दोगे नहीं तुम इनके
सेंध तो लग सकेगी कुछ वहम में..।

शराफत का तुम एक चोगा पहने
मुकम्मल बिता देते हो पूरा दिन..।
ट्रेन रिक्शे बस में उसकी बगल में
सायास बैठते ही क्या हो जाता है तुम्हें??
उस चोगे के ही तले, तुम्हारी उंगलियां..
क्यों रेंगने लगती हैं उसके बदन पर?
हाथ काबू में कैसे बेकाबू होने लगते हैं?

ज़हन की गंदगी को कैसे छुपाते हो??
आँख से टपकती हवस कैसे रोकते हो?
वह किस उम्र की है, किस तरह की है..
परखना भूल जाते हो.. बस याद होता है..
कि वह तुम्हारी कुत्सित आकाँक्षाओं..
घृणित हवसी मानसिकता अपेक्षाओं..
की पूर्ति का एक साधन भर है।

सुनो.. ! ये वही उंगलियां तो हैं..
जिनसे अपनी बेटी को घुमाकर,
स्नेह से माथा सहलाकर आये थे!!
इन्ही हाथों से माँ के पाँव rदबाकर
कोटि कोटि आशीष पाकर आये थे!!
इन्हीं हाथों से पत्नी को प्यार पगे
ढेरों आश्वासन थमाकर आये थे!!
और शायद तुम भी तो वही हो..??
जो पुरुषत्व के प्रतीक बन छाये थे!!
आदर्श पुरुष का दम्भ भरते थकते नहीं?
पल पल रंग बदलते वाकई थमते नहीं ।

क्या हासिल था तुम्हें उस क्षण में..?
क्या अनूठा था उस अनजान स्पर्श में…?
घृणित विकृतता के हवन में दूसरों की..
एक और आहुति ड़ालकर तृप्त हो तुम?
या इंतेज़ार है.. उसमें अपने ‘उस ‘
स्नेह, ममता और प्रेम की आहुति का..??
क्या तब तक रुकेगा नहीं यह विकृत खेल?
बस इतना सा पूछना है तुमसे।

©भारती शर्मा, मथुरा उत्तरप्रदेश

परिचय- हिन्दी के अध्ययन अध्ययन अध्यापन से जुड़ी हैं। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित होती हैं। साहित्य कुंज नामक पेज पर लिखती हैं।स्त्री विमर्श पर इनकी सशक्त अभिव्यक्ति होती है।

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