लेखक की कलम से

पुरुष और दर्द…..

पुरुष हूं तो इसलिए, दर्द ना होने का झूठा दंभ मैं भर जाता हूं
इत्मीनान से रहे सभी स्वजन मेरे ,सो कभी कभी झूठी हँसी भी हंँस ‌जाता हूं।

एक नाजुक सा दिल मेरे सीने मे भी धड़कता है,
फर्क सिर्फ इतना है सभी कह सुनकर दिल हल्का कर लेते हैं
मैं अकेले में ही आंखों की कोरों मे नमी को छुपाता हूं
पुरुष हूं तो इसलिए….

ओ मेरी जीवनसंगिनी, बच्चों में जितनी जान तुम्हारी बसती है उतने ही मेरे भी प्राण बसते हैं, फर्क बस इतना है तुम कहकर लाड लड़ा कर,प्यार दिखा पाती हो।
मैं जिम्मेदारियों में अपने प्यार को छुपा जाता हूं।
पुरुष हूं तो इसलिए…

ओ मेरी प्यारी बहना , जितनी फिक्र है तुझे मां-पापा की, तुम आकर, बोल कर बता पाती हो।
फर्क है तो बस इतना कि मैं उनके साथ उनकी सेहत की खातिर थोड़ी सख्ती दिखा जाता हूं।
पुरुष हूं तो इसलिए…

ओ मेरी प्यारी लाडो , तेरी विदाई में तेरी मां गले लग कर रोकर अपना स्नेह दिखा पाती है।
फर्क है तो सिर्फ इतना मैं दरवाजे के पीछे हृदय में उमड़ते आंसू के सैलाब को हृदय में ही छिपा जाता हूं।
पुरुष हूं तो इसलिए…

ओ मेरे जिगर के टुकडे मेरे बेटे ,जब तू चला जाता है विदेश तेरी मां बेचैनी में दिन रात काटती है ,
होता हूं मैं भी बेचैन उतना ही ,फर्क है तो बस इतना कि मैं तेरी मां की बेचैनी को ही कम करने में लग जाता हूं।

पुरुष हूं तो इसलिए…

कोई ख्वाहिश अधूरी ना रह जाए, मेरे अपनों की इसलिए कभी-कभी हैसियत ना होते हुए भी उधारी पर ही सभी अपनों के सपने सजाता हूं
पुरुष हूं तो इसलिए…

मेरी प्यारे घरौंदे में कभी कलह का कोई अंकुर ना फूट पाए तो कभी-कभी सामंजस्य बिठाने में खुद को ही, दर्दो दीवार की लड़ी में सिल जाता हूं।
पुरुष हूं तो इसलिए…

तुम सभी समझते हो मुझको अपनी ताकत
कहीं मेरी आंखों की नमी तोड़ ना दे तुम्हारी यह ताकत
इसी खातिर गमो का प्याला अमृत समझ कर अंदर ही अंदर पी जाता हूं।
पुरुष हूं तो इसलिए…

यह कैसा रिवाज बनाया समाज ने कि मर्द की आंखों में आंसू अच्छे नहीं लगते ?
मर्द को दर्द नहीं होता?
मैं भी चाहता हूं किसी से कह कर अपने दिल का बोझ हल्का कर लूं
हो सकता है कुछ गम आंखों के रास्ते ही बाहर आ जाएं
और पुरुषों के हृदयाघात कुछ कम हो जाए…

पुरुष हूं तो इसलिए दर्द ना होने का झूठा दम भरता हूं
इत्मीनान से रहे सभी स्वजन मेरे ,सो कभी कभी झूठी हंसी भी हंसता हूं…

©ऋतु गुप्ता, खुर्जा, बुलंदशहर, उत्तर प्रदेश 

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