लेखक की कलम से
नई रोशनी…
मकरसंक्रांति आई है…
लाई है नई सी रोशनी…
नये सूरज के संग…
जो भर रहा है…
नित नई उमंग…
उन मायूस,निराश सी…
आंखों में…
जो छटपटा रही थी…
नवस्वप्न को…
जो अंधेरे में कहीं…
धुंधला सा गया था…
उम्मीद रूठकर दूर…
समुद्र के उस छोर…
जा बैठी थी…
हर ओर से निराशा भरी नज़रें…
देश के मूल स्तम्भों को घेरे…
उन्हें ध्वस्त करने की चाह में…
प्रयासरत…
अन्न के देव कहे जाने वाले…
आत्म निर्भर,…
मेरे देश के सच्चे पालको का… दर्द भी नहीं देख पा रहे थे हम …
हम साधारण सी बात पर…
जोरदार भाषण देने वाले…
आज अपने अन्नदाताओं के…
मन को पढ़ने…
उनके समक्ष जाकर…
उनको समझाने में…
बात मानने में…
इतना?????विलम्ब क्यों करें…
कार्य उनका वे जाने…
उनका काम………..
हम तो अन्तत: ख्वामखाह
ही हुए ना…!
खैर… नई रोशनी में….
सब स्वच्छ साफ है अब…!!!
©सुधा भारद्वाज, “निराकृति” विकासनगर, उत्तराखंड