लेखक की कलम से

बेआवाज़ आत्मा का बोझ …

 

पेशेवर शिकारी

  भाईचारे का नाटक

    ख़ारिज रिश्तों का दिखावा

 

नकली गोश्त के साथ

   प्लास्टिक की रोटी चबाते हुए

 

सामूहिक उत्साह के शिकार

जरूरतों को पूरा करने के लिए बन बैठे है पेशेवर शिकारी

 

हर तरफ हर रोज़

  बेआवाज़ आत्मा का बोझ

कमीज़ में बटन लगाए रोज

 

घर से दूर पड़ा देह

    लुप्त होता सत्य का स्नेह

नकली स्तन

      दोगला मन

 

चेहरे से पैसों का दुर्गंध आना

   सभी का चेहरा लगता है जाना पहचाना

 शहर की जुबान में साहब

  गांव की जुबान में पपुआ

सड़क पर कामयाबी का पीछा करता हुआ मेरा बबुआ

 

एक दिन चोंचलेबाज़ बीमारी का शिकार हुआ

फड़फड़ाते हुए

धड़धड़ाते हुए

लौटना चाहता है अपने उसी पिछड़े गांव में

हरे भरे नीम के छांव में

  शायद हार गया है पेशेवर शिकारी

©दोलन राय, औरंगाबाद, महाराष्ट्र

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