सुनो. . .
ये जो वक्त बेवक्त मैं
मांगती रहती हूं तुम्हारी तस्वीरें
जब तुम होते हो सुदूर
उस क्षितिज के पास
अपने काम के सिलसिले।
जानती हूँ आती होगी तुम्हें
खीज या कई बार प्यार भी
शायद समझते होंगे ये
थोड़ी सी नासमझियत मेरी।
पर सुनो!
उन महज तस्वीरों से
बुनना चाहती हूं कई आधे अधूरे
अक्षुण्ण स्वप्न
कुछ तुम्हारे संग होने और
कुछ थोड़े दूर होने का।
चाहती हूं चूमना उन टेढ़े होठों के
मधुरिम मुस्कान को
और चाहती हूं फेरना
अपनी उंगलियों को
उन गेसुयो में जिन्हें
यूँ ही हड़बड़ाहट में तुमने
सँवारा है हथेलियों से।
और चाहती हूँ देखना
एक अश्क धुंधला ही सही
उन शरारती आंखों में
खुद अपना,
और!!
उन उंगीलयों के बीच उंगलियां फंसा
कुछ वक्त गुजारना चाहती हूं
जो थम जाये तुम्हारी घड़ियों के
टिक टिक के बीच
और जन्नत का वो सुर्ख आसमां
बरसा दे अपनी बदरी संग
मेरे प्यार का वो गहरा रंग
जिसमें गीले हो बन जाये
तुम और मैं,
बस, हम!!
©विजया एस कुमार