लेखक की कलम से

कतरन शास्त्र …

क्या कारण हैं कि पश्चिम की हर अंधी नक़ल को ‘भक्त’ लोग या लोगिनी समर्थन देते हैं। हर चीज कहीं की भी सही नहीं होती। तभी तो कभी करीना-करिश्मा जैसी उत्तर आधुनिक अभिनेत्रियों के सगे चाचाजी ने भी इस प्रकार के फटे-सड़े-गले दलिद्दर वस्त्र का विरोध किया था। पर यह कौन-सी समझ है जो इन सड़े-गले फटे वस्त्रों में भी निजता और नारीवाद ढूँढ लेती हैं। आख़िर यह कौन-सी रणनीति है।

बाज़ारवाद की यहीं रणनीति हैं हर सड़ी-गली चीज को उत्तर-आधुनिकतावाद से जोड़ दो। तभी तो ‘पैखाना’ या संडास कहना पिछड़ेपन की निशानी और लैट्रिन और अब तो उससे भी आगे ‘वाश-रूम’ आधुनिकतावाद का प्रतीक। क्या अंग्रेज़ी के शब्दों से भी कहीं आधुनिकता आती हैं, शर्म आती है ऐसी सोच पर, जिसे अंग्रेजों ने रोपा और बाज़ारवाद ने पुष्ट किया।

वास्तव में हमारी सोच-समझ को ही अंग्रेज़ी चूहों ने कुतर दिया है इसी का परिणाम है यह सांस्कृतिक खोखलापन। उत्तर-आधुनिकता का सिद्धांत यहीं तो हैं जिसके तहत नंगा व्यक्तिवाद भी फ़ैशन के नाम पर खुला कहलाता है। जैसे चीन, इंग्लैंड, अमेरिका और मध्य पूर्व का विकास।

दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य हैं कि जिस देश में स्नान जैसी दैनिक क्रिया को इसके वैज्ञानिक गुणों को जानकर धर्म से जोड़ा जाता है, जहाँ जूठा गिलास भी कोई किसी का नहीं पीता, वस्त्र की भी अपनी महिमा स्थापित है। ऐसे में सड़े वस्त्र कैसे आधुनिकता की निशानी हो सकते हैं। वस्त्रों से तो सभ्यताओं की प्रगति का पता लगाया जाता है। अभी तक तो यहीं माना जाता था कि उन्नत सोच से समृद्धि आती हैं।

अंत में नक़ली एवं उधार के संस्कारों से सभ्यताएं समृद्ध नहीं होती। वह केवल खोखले लोग पैदा करती है। अत: वस्त्र को निजता से नहीं, संस्कार से जोड़े। भद्रता से जोड़े। राजनीति और बाज़ार से नहीं।

 

©डॉ साकेत सहाय, नई दिल्ली

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