लेखक की कलम से

आईना इतिहास का : महाभारत में स्त्री

हमारे महाकाव्य महाभारत में अनेक स्त्री पात्र हैं जो मूल एवं द्वितीयक कथाओं का हिस्सा हैं और पितृ सत्ता के मानकों के अनुरूप आदर्श व्यवहार करते दिखते हैं। किंतु कुछ ऐसे स्त्री पात्र भी हैं जो स्वाग्रही हैं और अपने प्रति होने वाले अन्याय का विरोध करते हैं। ये ऐसे पात्र हैं जो स्त्री का जीवित इंसान होना महसूस कराते हैं।जो सहजता से हँसते हैं, रोते हैं और विरोध करते हैं। जरुरत पड़े तो विद्रोह भी करते हैं। महत्वपूर्ण स्त्री पात्रों में शकुंतला, देवयानी, गंगा, सत्यवती, अम्बा, अम्बिका, अम्बालिका, गान्धारी, कुंती, हिडिम्बा, तपती, द्रौपदी, सुभद्रा का उल्लेख किया जा सकता है। ये सभी स्त्री पात्र आदिपर्व में उपस्थित हैं।

इन स्त्रियों से सम्बंधित आख्यान पर गंभीरता पूर्वक विचार करने पर हम ये पाते हैं कि ये स्त्री पात्र समाज में स्त्री की परंपरागत छवि को तोड़ते हैं।

आदि पर्व की पहली महत्वपूर्ण स्त्री शकुंतला है जो स्वेच्छा से दुष्यंत के साथ गन्धर्व विवाह करती है।महाभारत की शकुंतला कालिदास की शकुंतला (अभिज्ञान शाकुंतलम की नायिका) से मेल नहीं खाती। कालिदास की नायिका रोती, गिड़गिड़ाती भाग्य को कोसती दुष्यंत से अनुनय-विनय करती दिखती है। वह गर्भवती है, पति दुष्यंत के द्वारा ठुकराए जाने से अत्यंत विचलित है। किंतु महाभारत की शकुंतला दुष्यंत की राजसभा में अपने पुत्र का हाथ थामें प्रवेश करती है और अपने अधिकारों की निडरता से माँग करती है। दुष्यंत के द्वारा दुष्ट-तापिस कहे जाने पर वह प्रतिक्रिया स्वरुप कहती है कि, ‘मेरा जन्म और कुल तुमसे श्रेष्ठ है।’ वह अभिज्ञान शाकुंतलम की नायिका की तरह अस्वीकार किए जाने पर बिलखती नहीं है, बल्कि आहत अहम् से दुष्यंत को श्राप देती है,’उसका मस्तक शत खंडो में बँट जाए’। वह भरी राजसभा में घोषणा करती है कि दुष्यंत के सहयोग एवं स्वीकृति के बिना भी उसका पुत्र भरत पूरे राज्य का स्वामी होगा। वह विश्वास से कहती है कि, ‘स्वयं वह ऐसे पुरुष के साथ नहीं रहना चाहती जो भरोसा तोड़ने वाला, झूठा और मक्कार है’।

महाभारत की शकुंतला एवं कुछ अन्य उल्लिखित स्त्री पात्र इस बात का संकेत देते हैं कि इतिहास के प्रारंभिक चरणों में ही स्त्री ने अपने हाशिये पर ढकेले जाने का विरोध किया है,भले ही विरोध का वह स्वर कितना ही क्षीण क्यूँ न रहा हो। इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय बात यह भी है कि महाभारत एवं सभी आरंभिक पुराणों में कलियुग का विशद वर्णन मिलता है। कलियुग का उल्लेख सामाजिक संकट के रूप में किया गया है। सामाजिक संकट के इस तरह से उल्लेख में हाशिये पर पड़े समाज के विरोध और विद्रोह के बीज दबे पड़े हैं जिसने चार वर्णों की व्यवस्था में खलल पैदा की और जिसकी प्रतिध्वनियाँ पुराणों और महाभारत में मिलती हैं।

©नीलिमा पांडे, लखनऊ

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