लेखक की कलम से

चली है नई रीत. . .

अपनों को सूखी रोटी जब।

गैरों को मोहन भोग भिले।।

कुछ पता नहीं दु:ख अपनों का।

गैरों से कृष्ण बन मिले गले।।

अपनों से हों कड़वी बातें।

गैरों को बांटें हंसी के रसगुल्ले।।

अपनों की उदासी दिखती नहीं।

गैरों से मिले तो मुस्कुरा के मिले।।

कुछ पता नहीं जाने कितने दिन।

ऐसा परिवार चले न चले।।

ये नई रीत चली है जग में।

क्यों न घर की जर्जर नींव हिले।।

©ममता गर्ग, ठाकुरगंज, लखनऊ, उत्तरप्रदेश

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