ख़ामोशी…
चुप है यह आसमां,
चुप है ज़मीं।
न जाने कितने,
सपने जुड़े बैठे हैं,
कितनी ही,
आंखों में कहीं।।
अनकही कहानियां,
कह जाती हैं हवायें।
कोई तो बात है,
जो ढलते सूरज ने है कही।
रात चुपके से,
एक कहानी बनाती है।
दिन के पहलू में,
कई सवाल छोड़ जाती है।
पल-पल समय,
बदल जाता है।
इंसान उन्हीं कदमों पे,
कभी आगे,
तो कभी पीछे छूट जाता है।
रास्ते भी दिखाते हैं,
मंजिलें कई।
लेकिन,
भटकते रहते हैं, इंसान।
अपनी ही मंजिल के पास कहीं।
आवाजें ख़ामोश हैं…………?
ख़ामोशीया है चीख़ती………..!
लेकिन इस भीड़ के,
कानों तक,
कोई स्वर जाता ही नहीं।
यह सुनती ही नहीं।
बस भाग रहे खुद से,
लेकिन कौन बचता है कहीं।
बहुत भागे है,
पहले, तुम भी दौड़ लो।
इन ख़ामोशीयों के,
अर्थों को बोल दो।
जो हैं,
वो तो तुम देख सकते हो।
इस भू- क्षीतिज से,
परे को जान लो।
ख़मोशियों की भी है, ज़ुबां।
तुम उन्हें शब्दों के,
नये आयाम दो।
©प्रीति शर्मा “असीम”, सोलन हिमाचल प्रदेश