लेखक की कलम से

पत्थर के बूत …

 

जब ललक जगा हो बूत बनने का अपने को दिखाने महान।

कपोत और कौओं का विस्टा सर पर गिरकर पूछते तुम कितने महान।

 

शिलालेख पर नाम छपाना जब बन जाता उनका लक्ष्य।

लोगों के फिर नजर से गिरना और गिरना ही रहता लक्ष्य।।

 

जिसे न कोई खेल से मतलब उसके नाम का बंटता पुरस्कार।

खिलाड़ी को भी समझ न आता ये कैसा उसे मिला पुरस्कार।।

 

पुराने वीरों का नाम भूलकर अपने नामों का शिलालेख गढ़ा।

फिर बोलो तुम उस दलदल से अपने को कैसे अलग कहा।।

 

अगर देता उस नेताजी नाम या गढ़वाता उसपर लौहपुरुष।

बोलो इससे अच्छा दिखता और ख्याति बढ़ता तुम्हारा पुरुष।।

 

पर तुमको तो जिंदा बूत बनना है और जिंदा रहकर ही पहना हार।

तेरे नामो पर धूल पड़ेंगे साफ करते रहना बारम्बार।

 

सिख तुम्हें लेनी चाहिए उस मनमौजी शासक से।

जिसके ऐश और व्यशन ने नाम गिराया शासक के।।

 

अब बोलो फिर एक मोटेरा नाम तुम्हारा झेलेगा।

कल न जाने और कितने मोटेरा ऐसा दंश झेलेगा।।

 

महापुरुषों के कल्पित मन कोसेगा फिर तुमपर आज।

कल जब तुम महापुरुष की श्रेणी में होगे तो कल्पित रहना अपने आप।।

 

प्रश्न नहीं तब तुम कर पाओगे प्रश्न ही होगा तुमपर सबार।

रोड, बांध, सड़क चौराहा आदि नाम रखेगा अपने आप।।

 

©कमलेश झा, शिवदुर्गा विहार फरीदाबाद

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