लेखक की कलम से

ऐ बसंत …

जरा रुको सुलझाओ मेरे कुछ प्रश्नों की गुत्थी

क्यों वीरानी छाई है पेड़ों की डालियों पे??

क्यों खामोश है ना कूकती

कोयलिया

क्यों खेतों में ना सर साई है सरसों ???

ना गूंज्ता फिजाओं में स्वर कोमल गंधार ??

 

सुन रहे हो बसंत !

क्यों आज चूल्हा उदास किसान का

किसने छीना सुखचैन गरीब का ???

 

कुछ तो बोलो है जवाब तेरे पास /

मेरे यक्ष प्रश्नों का ???

 

उफ! तुम कहते हो बसंत ऋतु आई —

सुन!  है मुझे उस बसंत का इंतजा़र —

जो खिलाए वीरानों में बहार–

और बहाए दूध की नदियां-

 

© मीरा हिंगोरानी, नई दिल्ली

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