लेखक की कलम से
हे प्रभो…
प्रभो फिर से धरा पर तू उतर आ, कष्ट हरने को ।
यहाँ चहु ओर बैठे नाग काले, रोज डसने को ।।
इरादें नेक हो सकते न, उनके इस जमीं पर अब ।
लगा कर आग दुश्मन ने, हमें छोड़ा सुलगने को ।।
यहा खाकर बजाते है, पड़ोसी देश की वो क्यों ।
शरण दी मुल्क ने उन्हें, जमीं पर इस बसे रहने को ।।
गरीबों की जलें जब झोपड़ी, तब होलि हो उनकी ।
नजर आते न अब आसार, लोगों के सुधरने को ।।
कभी भूलें न करना, देश को कमजोर करने की ।
जरूरत गर पडी तो, हम रहे तैयार मरने को ।।
खडे है जो जवाँ, इस देश को शत्रु से बचाने को ।
तभी उठती तड़प उनमें, तिरंगे में लिपटने को ।।
सिखाता है वतन मेरा, करो सबसे मुहब्बत तुम ।
मगर लौं जल उठी अब, मजहबी रज बन बिखरने को ।।
©डॉ मधु त्रिवेदी, आगरा, उत्तरप्रदेश