लेखक की कलम से

अस्तित्व खोते हमारे स्तंभ …

 

सच ही कहा है जिस घर में बुजुर्गों की हंसने की आवाज़ें आए तो समझना चाहिए,कि वह घर दुआओं से भरा है और वहां ईश्वर स्वयं निवास करते हैं।

पर इस कहावत के विपरीत आज के परिवेश में 80% बुजुर्ग एकांकीपन व निराशा से जूझ रहे हैं ,बच्चे उन्हें सभी सुविधाएं तो देते हैं,लेकिन प्यार, सम्मान और हक से अक्सर  उन्हें वंचित ही रखते हैं।

एक समय में ये बुजुर्ग ही इतनी इज्जत व सम्मानजनक जिंदगी जी चुके हैं कि आज का नकारात्मक व्यवहार वह सहन नहीं कर पाते और अंदर ही अंदर खोखले होकर टूटते लग जाते हैं। हंसना कम हो जाता है ,दुखों में घिर जाते हैं, निराशा घर कर लेती है।

आज के बच्चे अपने मां बाप को इतना भी हक नहीं दे पाते कि वे अपने ही बच्चों को सही गलत की सलाह दे सके। वे परिवार में रहते हुए भी एकांकी पन से जूझने लगते हैं ।आज की पीढ़ी को यह समझना चाहिए कि जीवन की मौलिक सुविधाएं तो मां-बाप ने भी उन्हें दी थी ,क्या यही सुविधाएं यदि उन्हें बिना प्यार दुलार के मिली होती तो क्या वह सही मायने में सही होता….

हम जो भी आज करते हैं हमारे बच्चे यही देख कर समझ कर सीखते हैं और वक्त कितनी तेजी से चलता है पता ही नहीं चलेगा कब हम अपने बुजुर्गों की जगह खड़े होंगे और हमारे बच्चे हमारी जगह ….

इसीलिए समय रहते  हमें अपने आंगन के आधार स्तंभ को संभालना चाहिए उनके अनुभवों से कुछ सीखना चाहिए।अपने बुजुर्गों को प्रेम से सम्मान दें उन्हें परिवार का हिस्सा बनाएं वे सिर्फ प्रेम और प्रेम के ही भूखे हैं ।

हमारे बुजुर्ग हमारे घर आंगन में लगे वो फलदार वृक्ष हैं ,जिनकी छत्रछाया में हम व हमारे बच्चे ना जाने कितनी दुआओं के साथ रहते हैं ,इसलिए ध्यान दें घर में सर्वप्रथम खुशियां लाएं खुशियों के आने के बाद किसी अन्य चीज की आवश्यकता ही ना होगी।

 

©ऋतु गुप्ता, खुर्जा, बुलंदशहर, उत्तर प्रदेश

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