लेखक की कलम से

मंजिलें अपनी जगह है रास्ते अपनी जगह …

 

बदली बदली सी लगे आबो हवा संसार की आदमी हर वक्त बस सोचा करे व्यापार की

 

रिश्तों की अब क्या कहें मिलते नहीं सच्चे यहां अब अना पर अटक जाती हर खुशी परिवार की

 

सह सकें कुछ सुन सकें अब आदमी ऐसा कहाँ बात छोटी या बड़ी बनती वजह तकरार की

 

बोल ऐसे बोल जाते हैं सभी आवेश में

जान पर बनती जरूरत है नहीं हथियार की

 

फ़र्ज की अब क्या कहें अपने किसी को याद ना हां सभी को याद है बातें निजी अधिकार की

 

प्रेम औ सौहार्द की बातें भली लगती नहीं

लोग बस समझा करें बातें इन्हें अखबार की

 

छोड़िए क्या बात लेकर हम ग़ज़ल कहने लगे रास सबको आ रही है बात बस श्रृंगार की ….

 

 

©डॉ रश्मि दुबे, गाजियाबाद, उत्तरप्रदेश       

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