लेखक की कलम से

मुझ में भी… इक सागर …

 

हां! सिमटा है

मुझमें भी,,,

… इक सागर।

 

जो रह कर मौन

करता है समाहित

खुद में,,,

अनगिनत

… तर्कों- वितर्कों को।

 

नदियों समान

लोग लाते हैं संग अपने

कभी मीठे पानी की तरलता

और कभी

…कचरा और गरल ।

 

जब कुतर्कों से हो उत्पन्न

“वेग – द्वेष”

कई बार सुलग पड़ती हूं मैं,

जब खौलने लगता है खून

तब सागर समान

बन सुनामी और

कभी ज्वालामुखी

…फट पड़ती हूं मैं।

 

पर अक्सर-आदतन

समेटने रिश्तों की सीपियाँ

लहरों के हलके उतार – चढ़ाव सम

पी जाती हूं गरल

… चुपचाप

 

सच में,,,

बहुत कठिन है

जलधि सा बनना

चाहिए इसके लिए

गहराई, विशालता और

… आत्मसात का गुण।।

 

©अंजु गुप्ता

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