लेखक की कलम से

मंद पड़े क्यों तान हे कोकिल …

 

मंद पड़े क्यों तान हे कोकिल तुमने ऐसा क्या देख लिया।

क्या विपदा ने तुमको भी घेरा या प्रकृति मार तुमपर पड़ा।।

 

 या फिर तुमने साधी चुप्पि समाज के इस लूट पाट से।

 या फिर चुप हो डाकू चोर और अपराध से।।

 

अगर ये बात नही तो मंद  पड़े क्यों  तेरे तान।

क्या तुमको भी नीड की चिंता जो टपक रहे हैँ सुबह शाम।।

 

 क्या पट्टी भी तुमने बाँधी  जैसे हमने मुख पर बंधा है आज।

 या फिर ढक कर रखा है मुख को जैसे ढका सरकार ने आज।।

 

क्यों मंद पड़े तेरे सुर कोकिल क्या बैठा इसमें कोई दर्द।

जैसे मानव  क्षण क्षण जलता पलता रहता सीने में दर्द।।

 

 क्या तेरे मन मे भी भरता है अपनो के लिये अवसाद।

  क्या तुम भी जलती हो फलता फूलता देखकर समाज।।

 

तेरी तो बस तन ही काली यहाँ तो लोगो का काला मन।

अपने ही जिह्वा पर देखो इसने चड़ाया काला रंग।।

 

 काली इनकी हरकत होती इस काले मन वालों का।

 देश और समाज को काला करता रहता हरकत इनका।।

 

अब तो बोलो क्यों मंद पड़े तान हे कोकिल

क्या रजनी के छाया का डर।

या फिर डर इस बात का की दरवाजा नही है तेरे घर।।

 

 स्वच्छ हवा में फिरने वाली तुमको नीड़ की क्या चिंता।

जब चाहो जहां फिरो तुम अब मौन रहने का क्या फायदा।।

 

अब गाओ देश राग भारत माता का करो गुणगान।

अपने सुर को पक्का कर तुम फैलाओ अपना मधुर तान।।

 

 फिर होगी चहु और किलकारी रजनी तम को हर लेंगे रवि।

एक एक कर जीव जंतु भी तान भरेंगे मिलकर सभी।।3

 

©कमलेश झा, शिवदुर्गा विहार फरीदाबाद      

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