लेखक की कलम से
कौन जाने है …
नियंता और जगत दोनों की मंशा कौन जाने है।
की आते ही जहां में सब को रोना आ गया।।
सयानापन, सियासत ,नफरतों की ठोकरें खाकर।
सरल रहना हुआ मुश्किल, तो रोना आ गया।।
कसर कोई नहीं थी कसमे वादे सब मुकम्मल थे
दिलों के फासले हमसे न मिट पाये, तो रोना आ गया।।
सफर अपनी मुहब्बत का शुरू था मुस्कुराने से।
खतम रोने से होता देख रोना आ गया।।
नहीं देखा गया अपनों से जब मेरा अकेलापन।
लगे मिलकर हंसाने लोग रोना आ गया।।
कमाई उम्र भर की हो गयी तकसीम इस दर्जा।
कि खाली हाथ फिर से देख रोना आ गया।।
लरजते कांपते असहाय हाथों पर तरस खाकर।
किसी ने रख दिया जब हाथ रोना आ गया
जतन सौ सौ किये लोगों ने हँसने के यहां आकर।
मगर जब आ गया रोना, तो रोना आ गया।।
©क्षमा द्विवेदी, राजप्रयाग