लेखक की कलम से

ये तेरा झुण्ड, ये मेरा झुण्ड …

 (व्यंग्य )

 

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उसे जीवन में अनेक समुहों की आवश्यकता होती है। परिवार, रिश्तेदार, मित्र, सहयोगी, सहायक कर्मचारी आदि-आदि। अब मनुष्य आधुनिक हो गया है तो उसके ये झुण्ड भी वॉट्सएप, फेसबुक पर ऑनलाइन हो गए हैं। हर मनुष्य के मोबाइल में अनेक झुण्ड होते हैं। जिन  पर गुफ़्तगू करने, हस्तक्षेप करने, टांग खींचने, टांग अड़ाने, बहस-बाज़ी करने, ज्ञान देने, ज्ञान बटोरने, ऊल-जलूल बातें करने, अफवाहें फैलाने, टिप्पणियां करने, निंदा करने में वह व्यस्त रहता है। वह कई झुंडों का सदस्य होता है और कोई न कोई अपना झुण्ड भी बनता है। जिससे दूसरों को सदस्यता दे सके। इन झुंडों के कारण सारा दिन मोबाइल पर रौनक रहती है। दिन क्या रात को भी यह सिलसिला थमता नहीं। रात में भी बत्तियां जलती-बुझती रहती है। अगर आप किसी ग्रुप में नहीं हैं तो आप निहायत पिछड़े हुए प्राणी हैं। आपको संसार की गतिविधियों की खबर क्या ख़ाक होगी।

मैं भी कई झुंडों की सदस्या हूं। हालांकि अभी मैंने अपना कोई झुण्ड शुरू नहीं किया। हम उर्दू सीखने गए तो जहां चार यार मिल जाएं वहीं झुण्ड हो जाए। हमारा भी उर्दू परिवार के नाम से ग्रुप शुरू हो गया। कई साल से चल रहा है। इसमें हम लोग अधिकतर शायरी ही डालते हैं। कभी-कभार गुड मॉर्निंग हो जाए तो हो जाए। ज़रूरी नहीं कि गुड मॉर्निंग का उत्तर देना हरेक के लिए अनिवार्य है। इसमें भी एक महाशय हैं जो सात-आठ बार झुण्ड छोड़ चुके हैं। यह कह कर- “मुझे लगता है कि मैं यहां उपेक्षित हूं”। क्योंकि उनके निम्नस्तरीय चुटकलों और वर्षों पुरानी ज्ञानपरक बातों पर कोई कमेंट नहीं करता। हम उनके छोड़ने पर भी कुछ नहीं कहते और वापस आने पर भी नहीं। दो महीने वे नाराज़ रहते हैं फिर स्वतः ही एडमिन को फोन कर उन्हें जोड़ने को कहते हैं। बस हम मुस्कुरा कर उनका आना-जाना देखते रहते हैं।  

एक शादी में मेरे पति के ममेरे फुफेरे, चचेरे भाई-बहन मिले। बस तभी वहीं बैठे-बैठे झुण्ड तैयार। इतनी फोटो शादी के फोटोग्राफर ने दूल्हे-दुल्हन की नहीं ली होंगी। जितनी उस ग्रुप में डाली गईं। सब अपने फ़ोन के कैमरे की क्वालिटी सिद्ध करने में लगे रहे। दो दिन खूब तमाशा रहा। तीसरे दिन इनकी चचेरी बहन व उसके पति में इसी ग्रुप की वजह से कोई झगड़ा हो गया और उसने झुण्ड का त्याग कर दिया। धीरे-धीरे कई सदस्य मौन हुए। इनकी ममेरी बहन लगभग महीनाभर सुबह 10-12 गुड मार्निग और रात को इतने ही गुड नाइट करतीं रहीं। हम ने बर्दाश्त किया। अब उस झुण्ड में मैं और मेरे पति बचे हैं और सब खण्डर छोड़ कर जा चुके हैं। हमने उस झुण्ड की याद को मुमताज़ के मकबरे की तरह संभाल कर रखा हुआ है। बस ! कभी-कभार दर्शन कर लेते हैं और एक दूसरे को कोई संदेश भेज कर मन खुश कर लेते हैं।

मैंने एक संस्था की सदस्यता ली। तब व्हाट्सएप नया-नया आया था। संस्था का झुण्ड सबसे बड़ा था। क्योंकि उस संस्था के बहुत सदस्य थे। सारा दिन झुण्ड जीवंत रहता। कई सन्देश गुणकारी भी होते थे। धीरे-धीरे राजनैतिक बहस शुरू हुई। कई बार बहस भयानक रुप ले लेती। बेचारे संयोजक निवेदन करते रह जाते- “शांत रहें ! शांत रहें  ! इस समूह में राजनीति पर बात नहीं होगी।”

धमकी भी देते- “मैं अमुक महोदय को झुण्ड से बाहर कर दूंगा।”

पर कोई उनकी बात नहीं सुनता था। कुछ लोग निम्न स्तर पर उतर आते। धीरे-धीरे लोग झुण्ड छोड़कर जाने लगे। मुझे तमाशा अंत तक देखना अच्छा लगता है। मेरे जैसे और भी 15-20 लोग हैं। जो अभी भी झुण्ड में बने हुए हैं। पर झुण्ड में भयानक सन्नाटा रहता है। कई बार मैं भूल ही जाती हूं कि मेरे मोबाइल में ऐसा कोई झुण्ड है भी।

फेसबुक पर एक लेखक महोदय की रचना मुझे अच्छी लगी। मैंने उस पर कमेंट किया तो उन्होंने अपना नंबर भेजा और व्हाट्सएप पर अपनी रचनाएं भेजना शुरु किया। फिर उन्होंने अपने झुण्ड में मेरा नंबर डाला। सुबह, शाम, दोपहर, रात वे दोनों जगह अपनी रचनाएं डालते हैं। मैंने झुण्ड छोड़ दिया क्योंकि और कोई उसमें रचना नहीं डाल रहा था। फिर एक ही रचना दो-दो जगह। दूसरे दिन उन्होंने फिर मुझे झुण्ड में जोड़ दिया। मैंने झुण्ड फिर त्यागा। पर अब यह संभव नहीं था। क्योंकि मैं चार बार झुण्ड छोड़ चुकी हूं परन्तु वे हठी प्राणी दूसरे ही दिन मुझे फिर उठाकर उस में डाल देते हैं। शायद उन्हें अपने झुण्ड की संख्या कम नहीं करनी है।

एक साहित्यकारों का झुण्ड है। बहुत ही सक्रिय। अच्छा साहित्य पढ़ने को मिलता है। परन्तु आलोचना के नाम पर सब मौन। किसी का जन्मदिन होता है तो सारा दिन शुभकामनाएं। एक भी व्यक्ति बधाई दिए बिना छूटना नहीं चाहिए। जो छूट जाता है वह आत्मग्लानि से आत्महत्या कर लेने तक की सोचता है। बधाई, हार्दिक बधाई, ढेर बधाई, किलो बधाई, टन बधाई, बस बधाई ही बधाई। कई बार तो मुझे संदेह होने लगता है कि कहीं यह बधाई देने वालों का झुण्ड ही तो नहीं।

एक लिखता है- मैंने कविता लिखी।

दूसरा- बधाई।

तीसरा- बहुत बधाई।

चौथा- हार्दिक बधाई।

पांचवां- वाह ! बधाई।

पहला- सुन तो लें ।

दूसरा- आपको बधाई।

चौथा- हार्दिक बधाई।

बीच-बीच में कई बार जब मैं इस झुण्ड में झांकती हूं तो लगता है जैसे अभी-अभी किसी के लड़का पैदा हुआ है। बधाई-बधाई की जय-जयकार हो रही है।

एक कवि झुण्ड में 40 दिन में 4 सौ कविताएं लिखने की प्रतिज्ञा करते हैं। जैसे पितामह भीष्म ने की थी। सारा वातावरण फिर बधाई से गूंज उठता है। मेरा दिमाग सुन है। मैंने मंदिर-गुरुद्वारे लगातार 40 दिन जाने का चलिया करते तो लोगों को सुना था। पर क्या इस तरह सोच कर कविता लिखी जा सकती है। यदि हां ! तो मुझसे इतने दिनों से कोई कविता क्यों नहीं लिखी गई। अरे ! मैंने तो दो महीने से कुछ भी नहीं लिखा। क्या मेरे अंदर का लेखक मर गया है ? क्या उसने इन झुंडों की महिमा देख कर आत्महत्या कर ली ? मैं सारा दिन इन झुंडों में विचरती रहती हूं और मेरा मन गा उठता है-ये तेरा झुण्ड, ये मेरा झुण्ड, ये झुण्ड बहुत हसीन है।

©डॉ. दलजीत कौर, चंडीगढ़

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