लेखक की कलम से

मेरे पापा …

 

जितना भी लिखें उतना काम है। क्योंकि बचपन से जवानी तक हमने अपने को उन्ही के साथ जिया है। जो भी बचपन में अपने पापा के लिए मैंने एहसास किया है वो एक ही कविता में तो लिख पाना असम्भव है परन्तु पापा के लिए चंद पंक्तियाँ प्रस्तुत की हैं।

मेरे पापा हैं

संस्कारों की खान।

पापा से ही बनी ,

आज मेरी पहचान ।

मेरे पापा हैं नभ समान,

परिंदों की तरह आज भी,

ऊंची भरें उड़ान।

थोड़े से हैं सख्त बने,

कभी थोड़े बने नरम।

जाने कितने मर्म हैं उनके,

सीने में दफन।।

पापा का कर्म ही,

सबसे बड़ा धरम।

सबको पापा पर विश्वास है,

इसमें ना कोई भरम।।

फर्ज निभाते हैं अपना,

हटाते नहीं हैं कदम।

सभी की खुशी की खातिर,

भूल जाते हैं अपने जख्म।।

पापा की अच्छाई से ,

गर्व हमें है आज।

उर में उमंग सी उठती है,

पापा हमारे हैं खास।

होने को तो तुम्हारी पापा,

रोज आती है याद।

असूयन नयन से छलक पड़े,

जैसे वर्षा की बौछार।।

लेकिन तुम्हारे स्नेह का

हमको भी है भान।

प्यार दिखा नही पाते हैं,

ले आते होठों पे मुस्कान।।

पापा के त्याग का,

मैं क्या करूँ बखान?

अपने बच्चों के लिए,

अपनी जान करें कुर्वान।।

जग में पापा से बड़ा ,

नहीं होता धनवान।

इसलिये पापा हैं मेरी,

आन ,बान और शान।

 

©मानसी मित्तल, बुलंदशहर, उत्तर प्रदेश

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