लेखक की कलम से

गांधी की धर्मनिरपेक्षता……

बापू की पुण्यतिथि पर

के. विक्रम राव

नई दिल्ली। महात्मा गांधी ने सेक्युलर शब्द न कभी कहा और न कही लिखा। वे चाहते थे कि यदि पुनर्जन्म हुआ तो वे हिन्दू ही हों। अपने को संकोच नहीं होता था। फिर भी मनसा, वाचा, कर्मणा बापू अप्रतिम सेक्युलर थे। अल्पसंख्यक उनपर बेहिचक भरोसा करते थे। मुसलमानों के वे अविचल सुहृद थे क्योंकि उनकी दृष्टि में इस्लाम के ये मतावलम्बी मात्र वोटर नहीं थे। खुद उनकी भांति हिन्दुस्तानी थे। हालांकि इतिहास का मान्य यह तथ्य है कि अविभाजित भारत में मुस्लिमों का बहुलांश मियाँ मोहम्मद अली जिन्ना के पीछे था। गांधी और उनके हमराह खान अब्दुल गफ्फार खान तथा मौलाना अबुल कलाम आजाद को अनसुनी करता था।
इसीलिये वेदना होती है, रोष भी, जब चन्द बहके भारतीय अधकचरी जानकारी के बूते विकृत बातें पेश करते हैं। इससे सेक्युलर राष्ट्रवादी का मन खट्टा होना स्वाभाविक है। मसलन कुछ उग्र हिन्दू कहते हैं कि तुर्की के खलीफा का समर्थन कर गांधीजी ने भारत में इस्लामी फिरकापरस्ती को खादपानी दिया, पोषित किया।

दूसरी तरफ खांटी जिन्नावादी मुस्लिम लीगी हैं जो नारा बुलन्द करते थे पाकिस्तान का और रह गये खण्डित भारत में। आज भी वे बापू के बारे में वही राय रखते हैं जो कभी राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष मौलाना मोहम्मद अली जौहर ने कहा था कि बनिस्बत हिन्दू गांधी के एक मुसलमान उनके ज्यादा अजीज है भले ही वह जारकर्मी पतित क्यों न हो। यह तर्क विकृत है मगर गत सदी के पूर्वार्ध में खूब चला था। आज यह बेतुका है, राष्ट्रविरोधी भी।

आधुनिक संदर्भ में जब हिन्दु-मुस्लिम रिश्तों विषाक्तता बढ़ रही है, यह विश्लेषण करना होगा कि क्या बापू की यह भूल थी कि इस्लामी दुनिया के खलीफ़ा और तुर्की के अपदस्थ सुलतान मोहम्मद चतुर्थ को पुनप्र्रस्थापित करने हेतु खिलाफत आन्दोलन चलाया जाना चाहिए था? इस्तानबुल स्थित ओटोमन खलीफा ने 1774 से रूस से युद्धोपरान्त एक संधि की थी जिससे तुर्की के बाहर बसे मुसलमानों का मजहबी संरक्षक बन गया था। इसके कारण 1880 से भारत के मुसलमानो का भी यह तुर्की सुलतान अब्दुल हामिद द्वितीय खलीफा बन गया था। किन्तु प्रथम विश्वयुद्ध में जर्मनी, तुर्की और रूस की ब्रिटेन व अमरीका द्वारा हरा दिये जाने पर तुर्की की सल्तनत खत्म हो गई। अंग्रेजों ने पराजित सुल्तान का खलीफा पद को अमान्य करार दिया। इससे 1920 से 1924 तक भारतीय मुसलमानों ने मौलाना मोहम्मद अली, उनके भाई मौलाना शौकत अली, मौलाना अबुल कलाम आजाद, डा. मुख्तर अहमद अंसारी, बेरिस्टर मोहम्मद जान अब्बासी आदि के नेतृत्व में भारतीय केन्द्रीय खिलाफत समिति बनाई। जिसने खलीफा को पुनः स्थापित करने हेतु आन्दोलन छेड़ा। गांधी जी इस केन्द्रीय समिति के सदस्य बने और मोतीलाल नेहरू ने उनके कदम का खुला समर्थन किया। मगर मोहम्मद अली जिन्ना ने खलीफा को बचाने का कड़ा विरोध किया। किन्तु गांधी जी के प्रयासों से पहली बार भारत के मुसलमान एकजुट होकर भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हो गये। खिलाफत और जंगे आजादी एक सूत्र में बंध गए जिससे अंग्रेजी साम्राज्य डगमगा गया।

बासठ वर्षों बाद (1857 से) दिल्ली में 23 नवम्बर 1919 के दिन राष्ट्रीय खिलाफत अधिवेशन हुआ। महात्मा गांधी ने सदारत की। मुसलमान प्रतिनिधियों ने गोकशी को प्रतिबंधिता करने की मांग की। मगर गांधीजी ने कहा अभी वे गोहत्या पर चर्चा नहीं करायेगे। क्योंकि इससे हिन्दु जन सौदेबाज लगेंगे। मुद्दा बस यही है कि बर्तानी साम्राज्य को खत्म करना है और खलीफा की पुनस्थापित तथा भारत की आजादी पर संयुक्त अभियान चले। अली बंधु और गांधी जी पूरे देश का साथ दौरा किया। उनकी समस्याओं में मुसलमान और हिन्दू मिलकर तीन नारे बुलन्द करते थे- ”अल्लाहो अकबर, वन्दे मातरम तथा भारत माता की जाय।“

शेष कल…

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