लेखक की कलम से

इश्क और खिचड़ी…

एक दिन वो यूँ बोले मुझसे चलो किसी होटल में जाऐंगे, मिल कर हम-तुम खाना खाएंगे, थोड़ा सा घूमेंगे-फिरेंगे और थोड़ा सा इश्क लड़ाएंगे।

मैं बोली यूँ पलक के उनसे 3 साल बाद हम 60 के है जाएंगे, अब इस उम्र में क्या ख़ाक इश्क लड़ाएंगे??  इक-दूजे के पीछे हम-तुम अब कहाँ दौड़ पाएंगे, जवाब देने लगे हैं घुटने, कैसे छुपेंगे पेड़ों के पीछे मोटे हो गए हैं कितने।

गाने भी तो गा नहीं सकते साँस फूलने लगती है, होता है कहीं नाचने का मन तो बुढ़ापे में मस्ती चढ़ी है, बातें करते हैं ये लोग। करके चियरस व्हीस्की के पैग को आनंद लेते थे पीते हुए, अब तो चढ़ जाता है नशा आधी बीयर की बोतल में। कहते मुझको सुन मेरी ज़ोहरा ज़बी, वो इश्क तो इश्क ही नहीं था कभी।

वो तो थी चाह, एक ललक, एक तड़प एक-दूजे को पाने की, असली इश्क तो ये है जाना.. रहती है चिन्ता एक-दूजे से दूर जाने की, ग़र मैं चला गया दूर तुमसे तो कैसे रह पाओगी तुम बिन मेरे, ग़र खुदा ना करे तुम पहले चली गई मुझसे दूर तो खाता फिरूगां मैं ठोकरें ज़माने की। 

अरी पगली इस उम्र में तो असली इश्क होता है, तुम बनाओगी प्यार से खिचड़ी मेरे लिए मैं बनाऊंगा तुम्हारे लिए चाय। इस इश्क का तो असली आनंद है फिर खा कर के दोनों एक साथ जा बैठेंगे हरी के चरणों में, हरी गुण गाएंगे, वही तो परम आनंद है।

©प्रेम बजाज, यमुनानगर

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