लेखक की कलम से

वसंत यूँ भी चला आता है …

 

लंबी प्रतीक्षाओं में

सूख जाते हैं गुलाब

टूट जाती हैं वो डाल

जिन्हें संभालना होता है

एक कली का भरोसा….

गिर जाते पँख उड़ते पक्षियों के

फ़टी ज़मीनें समेट लेती हैं

एक स्त्री की अस्मिता

झड़े प्लास्टर मकान की दीवार से तो…

उघड़ी पुरानी ईंटें

दीवारों में दफ्न

अनकहे किस्से

हवाओं में बिखेरती हैं

 

छूटे साथ तो

नींद  चिढ़ कर

ग़ायब ही कर देती है ख्वाबों को

दुःख की तारीख़े याद नहीं रखी जातीं

दुःख को जिया जाता है

सुख की तारीखें

आधी रात के अंतिम पहर

आँखों में बनाए रखती है नमी

 

सुबह-सुबह फूलों का चेहरा  उदास हो तो

विरहणी  की विह्लता

सरसों सी पक जाती है

 

निर्मोही

तुमने  बताया भी है कि..नहीं

कि…इस बरस पलाश  क्यों रूठा है

मन को अब कैसे कहूँ …धीरज धरो

जबकि… आगमन का आश्वासन झूठा है

 

झूठ-मूठ भी चलाए गए

दिलासों के नश्तर

नक्षत्रों की धीमी गति से नहीं

सुदर्शन चक्र की भाँति

काटते हैं दिल को

कोई दिल फ़रेब कितना भी कहे कि ..

रक्तिमा कभी भी उतर आती है मेरे ज़िक्र से…

मुझे पीताभ ही लगता है

गुलाबी दुपट्टे से ढका स्त्री का चेहरा

 

सही वक्त और प्रतिक्षाएँ निष्ठुर हैं

मौसमों में

बस एक वसंत है

जो…

हर साल सिर्फ़

पृथ्वी का  दुःख  ढकने चला आता है …. !!!

 

©पूनम ज़ाकिर, आगरा, उत्तरप्रदेश

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